स्टेट डेस्क/पटना। स्थानीय प्राधिकार से भरी जाने वाली बिहार विधान परिषद की 24 सीटों के लिए होने जा रहे चुनाव के बीच राजद ने दावा किया है कि सबसे पहले राजद शासनकाल में ही बिहार में पंचायतीराज व्यवस्था लागू की गयी थी। शासन और प्रशासन में पंचायत प्रतिनिधियों को प्रत्यक्ष भागीदारी दी गई थी, जबकि एनडीए की सरकार ने पंचायतीराज व्यवस्था को मात्र शो-पीस बनाकर रख दिया है।
73वें संविधान संशोधन के द्वारा जो अधिकार पंचायतों को दिया गया है, बिहार की वर्तमान सरकार ने उन सारे अधिकारों का अतिक्रमण कर दिया है।ये बातें राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रदेश प्रवक्ता चित्तरंजन गगन, एजाज अहमद एवं सारिका पासवान ने रविवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहीं।
राजद प्रवक्ताओं ने कहा कि पंचायतीराज व्यवस्था के प्रति वर्तमान सरकार की उदासीनता की वजह से 2006 से लेकर अबतक पंचायतीराज व्यवस्था का नियमावली भी सरकार नहीं बना पायी है। आज किस मुंह से भाजपा और जदयू के नेता विधान परिषद चुनाव में पंचायत प्रतिनिधियों से वोट मांग रहे हैं। जबकि सरकार की गलत नीतियों के कारण हजारों पंचायत प्रतिनिधि आज भी कोर्ट-कचहरी का चक्कर काट रहे हैं।
लालू प्रसाद के मुख्यमंत्रित्व काल में ही बिहार पंचायतीराज अधिनियम 1993 बना कर पंचायतीराज संस्थाओं को स्वायत्तता दी गई थी। राबड़ी देवी के मुख्यमंत्रित्व काल में हीं 2001 में पंचायत प्रतिनिधियों का चुनाव कराया गया था। राजद शासनकाल 2001 में हुए पंचायतीराज संस्थाओं के चुनाव में महिलाओं और अनुसूचित जाति/ जनजाति के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू की गयी थी।
राजद प्रवक्ताओं ने याद दिलाया कि भाजपा के विरोध के बाद भी जब पंचायत राज अधिनियम 1993 बन गया और 1996 में चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई तो भाजपा और समता पार्टी ( जदयू ) के इशारे पर आरक्षण प्रावधानों के खिलाफ हाईकोर्ट में रिट दायर कर चुनाव पर रोक लगवा दिया गया था। सर्वप्रथम 2001 में राबडी देवी के मुख्यमंत्रित्व काल में हीं पंचायतों का चुनाव कराया गया और संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार 11 वीं अनुसूची में शामिल 29 विषयों को पंचायतीराज संस्थाओं के साथ सम्बद्ध कर दिया गया।
एनडीए की सरकार बनने के बाद बिहार पंचायतीराज अधिनियम 2006 पारित कर पंचायतों के अधिकार सीमित कर दिए गये। संविधान के अनुसूची 11 में शामिल एक भी विषय को पंचायतों को हस्तांतरित करने की कोई राजकीय अधिसूचना जारी नहीं की गयी। पंचायतों के अधिकार केवल उन्हीं योजनाओं अथवा कार्यक्रमों तक सीमित कर दिए गये जिन्हें पंचायतों के माध्यम से निष्पादित कराने की वैधानिक अनिवार्यता है।
एनडीए शासनकाल में पंचायती संस्थाओं को पूर्ण रूप से पंगु बना दिया गया है और वह मात्र हाथीदांत बन कर रह गया है। राज्य सरकार के नये फैसले के अनुसार अब डीडीसी के जगह पर बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी जिला परिषद के मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी होंगे। जबकि 73 वें संविधान संशोधन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जिला परिषद का मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी जिलाधिकारी के समकक्ष स्तर के पदाधिकारी हीं होंगे।
डीडीसी को जिला परिषद के मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी नहीं रहने का मतलब है जिला के विकास योजनाओं से जिला परिषद की भूमिका को पूर्णतः वंचित कर देना। बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी केवल रूटिन वर्क कर सकते हैं। अन्य विभागों के जिला स्तरीय पदाधिकारी से कनीय रहने की वजह से वे प्रभावहीन साबित होंगे। यही स्थिति प्रखंडों में पंचायत समितियों की होने जा रही है। प्रस्तावित संशोधन के अनुसार अब प्रखंड विकास पदाधिकारी पंचायत समिति के कार्यपालक पदाधिकारी नहीं होंगे।
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राजद प्रवक्ताओं ने आरोप लगाया कि 16 सालों के एनडीए शासनकाल में अबतक तीन-तीन बार नये अधिनियम बनाये गए और हर नये अधिनियम में पंचायतों के अधिकार सीमित करने का सिलसिला जारी है। नये संशोधनों के द्वारा पंचायती संस्थाओं को पदाधिकारियों के मातहत गिरवी रख दिया गया है। नीतीश सरकार संवैधानिक मजबूरी के कारण पंचायतीराज व्यवस्था के अस्तित्व को समाप्त तो नहीं कर सकती है। लेकिन इस सरकार ने उसे प्रभावहीन और अधिकारविहीन कर केवल शो-पीस बना दिया है।