ब्रह्मानन्द ठाकुर
मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी है बलिदान संक्षेप में वर्णन कर रहा हूं।वर्तमान संदर्भ में इस कहानी पर गौर करने की जरूरत है। पहले कहानी के मुख्य पात्र का परिचय देता हूं। एक पात्र हैं मंगरु।इस मंगरु को जब इलाके के थानेदार से मित्रता हो गई और वह मुखिया बन गया तो वह मंगरु से मंगल सिंह कहलाने लगा। दूसरा पात्र हैं अल्लु अहीर। पुलिस में जब वह कांस्टेबुल हो गया तब लोग उसे कालिकादीन कह कर बुलाने लगे।अब जानिए कहानी के तीसरे पात्र हरखु को।यह हरखु पहले जब जमींदार वाला ओंकार नाथ सिंह के 5बीघा जमीन पर खेती -किसानी करता था और खुद से शक्कर बनाता था तब उसे लोग हरखचंद्र कुर्मी के नाम से जानते थे।वह बड़ा मिहनती और मितव्ययी था।मिलनसार था।एक छोरी बैल की खेती थी। समय पर जमींदार को लगान भी अदा कर देता था।
समाज में उसकी बड़ी इज्जत थी। बीमार पड़ने पर वह दवा का सेवन नहीं करता था। एक बार हरखू मलेरिया से पीड़ित होकर खाट पकड़ लिया। उससे मिलने मंगल सिंह और कालिकादीन बारी बारी से आए।दोनों ने हरखू को दवा खाने की सलाह दी।हरखू ने दोनों से दवा लेते आने को कहा। अब बिन पैसा का दवा कौन लाया ?किसीने दवा लाकर नहीं दी। हरखू मर गया। उसके बेटे गिरधारी ने खूब धूम धाम से अपने पिता का श्राद्ध कर्म किया। अब कालिकादीन की नजर हरखू के जमींदार वाले 5बीघा जमीन पर नजर लग गई। वह मालगुजारी बढ़ा कर और 100 रुपये का नजराना देकर वह जमीन हासिल करना चाहता था। उसने जमींदार से अपनी मंशा बताई।
जमींदार ओंकारनाथ ने यह कहते हुए उसे मना कर दिया कि हरखू वह जमीन 20 साल से जोत रहा है, इसलिए जमीन उसी के पास रहेगी।एक दिन जमींदार ने हरखू के पुत्र गिरिधारी को बुलाकर कहा,जमीन तुम्हारे पिता जोत रहे थे अब तुम ही जोरों।मालगुजारी तो वहीं पुरानी दर से 8 रुपये बीघा ही लगेगा लेकिन नजराना 100 रुपये देने होंगे।दूसरे लोग 10रुपये बीघा मालगुजारी और 100 रुपये नजराना देकर वह जमीन लेना चाह रहे हैं। गिरिधारी के पास रुपये नहीं थे।वह काफी खिलखिलाया मगर जमींदार ने उसकी एक न सूनी। वह जमीन कालिकादीन ले लिया। बेल मंगल सिंह खरीद लिए।कालिकादीन कै खूत जोतता देख गिरिधारी इतना दुखी हुआ कि कुंए में कूद कर आत्महत्या कर ली।उसका एकमात्र बेटा खेती किसानी से वंचित होकर ईंट भठृठे में 20 रुपये महीने पर मजदूरी करने लगा।
आज भी हमारे चतुर्दिक किसी न किसी रुप में बलिदान कहानी के किरदार मौजूद हैं। विविध प्रसंग में 19अक्टुबर 1932 को देश के किसानों की दुर्दशा से आहत होकर इस कालजयी रचनाकार ने लिखा था, ” किसानो की हालत यह है कि छोटे-छोटे किसानों का खेती पर जो खर्च पड़ रहा है ,वह वसूल नहीं होता ,लगान तो दूर की बात है। और मान लिया किसी तरह एक या दो साल डंडे के जोर से लगान वसूल कर लिया गया तो क्या? किसान भूखों मर रहा है तो वह दुर्बल और रुग्ण होगा ,खेती में ज्यादा मेहनत न कर सकेगा और इसलिए उसकी पैदावार भी अच्छी न होगी। हमे परिस्थिति में ऐसा कुछ परिवर्तन करने की जरूरत है कि किसान सुखी और स्वस्थ रहें। जमींदार ,महाजन और सरकार सब की आर्थिक समृद्धि किसान की आर्थिक दशा के अधीन है।
अगर उसकी आर्थिक दशा हीन हुई तो दूसरों की भी अच्छी नहीं हो सकती। किसी देश के सुशासन की पहचान साधारण जनता की दशा है।थोडे-से जमींदार, महाजन या राज पदाधिकारियों की सुदशा से राष्ट्र की सुदशा नहीं समझी जा सकती किसान के लिए दूसरी जरूरत ऐसे धंधों की है जिससे वह अपने फुर्सत के समय कुछ कमा सके।यह काम असंगठित रूप से नहीं हो सकता। इसे या तो सहकारी सोसाइटियों के साथ में देना चाहिए या सरकार को खुद अपने हाथ में रख कर व्यापार या उद्योग विभाग के द्वारा इसका संचालन किया जाना चाहिए।एक प्रांत में कुछ ऐसी चीजें हैं जिसकी खपत नहीं है ,मगर दूसरे प्रांतों में उनकी अच्छी खपत है।ऐसे उद्योगों का प्रचार करना चाहिए। खेती का पैदावार बढ़ाने की ओर भी अभी तक काफी ध्यान नहीं दिया गया।
सरकार ने अभी तक केवल प्रदर्शन और प्रचार के सीमा के अंदर रहना ही उपयुक्त समझा है। अच्छे औजारों ,अच्छे बीजों ,अच्छी खादों का केवल दिखा देना ही पर्याप्त नहीं है सौ में दो किसान इस प्रदर्शन से फायदा उठा सकते हैं।जिन कै भोजन का ठिकाना नहीं है ,जो नाक तक ऋण के नीचे दबा हुआ है उससे यह आशा नहीं की जा सकती कि वह नई तरह के बीज ,खाद या औजार खरीदेगा। उसे तो पुरानी लीक से जौ भर हटना ही दुस्साहस मालूम होता है। उसमें कोई परीक्षा करने की या जोखिम उठाने का सामर्थ्य नहीं है। उसे तो लागत के दाम पर ये चीजें किश्तवार अदायगी की शर्त पर देनी चाहिए। सरकार के पास ऐसे काम के लिए हमेशा धन का अभाव रहता है।हमारी राय में इससे ज्यादा जरुरी सरकार के लिए और कोई दूसरा काम नहीं है।”