रंगोत्सव: शाहाबाद को समझने के लिए डुमरांव के गढ़ को समझना होगा..

बक्सर

नवग्रहों का गढ़, डुमरांव का गढ़……..

Buxar,BP : कहते है कि आज़ादी के 70 साल पहले भारतेंदु हरिश्चंद्र बलिया के ददरी मेला में नाटकों का मंचन करने के बाद डुमरांव गढ़ पर नाटक का मंचन किये थे, तबसे आज तक डुमरांव का गढ़ शाहाबाद का सांस्कृतिक केंद्र बना रहा। ‘गढ़ ‘में अब तो कुछ सरकारी एवं निजी किराएदार रह गए हैं लेकिन गढ़ अभी भी कवियों, साहित्यकारों, राजनीतिक नेताओं एवं घोंघाबसन्तों का अड्डा हुआ करता था जिसपर वे इकट्ठा होकर घंटों बहस करते रहते थे। आजादी के बाद डुमरांव में कई ‘गढ़ ‘बनाये गए लेकिन गढ़ पर मूंगा चाय दुकान अभी भी देश के सारे संकटों एवं डुमरांव के सारे चंपको की खोज खबर ही नहीं लेता है बल्कि कभी उसे तार तार भी कर देता हैं। बिलर चाय दुकान को सांस्कृतिक पालन केंद्र कह सकते है जिसका कोई साइनबोर्ड नहीं है लेकिन डुमरांव में कोई गुम हो जाता है तो बताया जाता है कि गढ़ की इस दुकान पर देख लीजिए शायद मिल जाय।

‘गढ़ ‘कभी टमटम स्टैंड था अब टेम्पो स्टैंड बन गया है लेकिन गढ़ का अभी तक अपना कोई स्टैंड नहीं है। डुमरांव महाराज से लेकर वशिष्ठ नारायण साईं, अली अनवर, रामबिहारी सिंह लेकर ददन यादव तक का आज तक कोई भी स्टैंड इस गढ़ पर नहीं टिक पाया। गोया कि सबका स्टैंड बदलता रहा है। सुबह हो या दोपहर या गर्मी में आधी रात हो, गढ़ चौबीसों घंटे खुला रहता है और यहाँ खुला विचार तैरते रहता है। भोजपुरी भाषा का रिश्ता यहाँ ननद भौजाई का रहता है कभी कभी जीजा साली का भी हो जाता है। पत्रकारिता का हावर्ड है यह गढ़, संजय सिंह यहीं पैदा हुए। दर्पण सिंह भी यहीं पर पत्रकारिता का दर्पण देखे। देश की समस्या, एस पी, डी एम, यहाँ तक कि डुमरांव महाराज की समस्या पर तकरीरें होने लगी।

कांग्रेसियों पर शामत आने लगी। डुमरांव के बहस एवं गुस्से का केंद्र है यह गढ़। अबतो अस्पताल का अल्ट्रासाउंड के लिए भी यहीं पर आंदोलन होता है। बगल के श्री किसुन हलवाई की दुकान की जलेबी की गंध नथुने में घुसते जाती और यहाँ बहस तेज होने लगती। गढ़ में आने से पहले जैसे डुमरांव गोला में घुसते ही मसालों की गंध से नाक परपराने लगती हैं, उसी प्रकार गढ़ पर खड़े होने वाले किसी भी आदमी के कान के पर्दे समाज चर्चा एवं अखबार चर्चा से फटने लगते है। गढ़ पर अखबार आते ही हर अखबार की खबरों पर संपादकीय लिखे नहीं जाते हैं, बोले जाते हैं, कहीं खबर डुमरांव की निकली तो खबर से लेकर खबरनवीस की लुगाई तक की चर्चा होने लगती हैं। शरण नवीन यहां वकील, नेता पत्रकार सब कुछ है।

सुनते हैं कि इधर बुढ़ऊ बुढ़ऊ से है कमलेश सिंह बगल के स्कूल के माहटर है, खबर वबर लिखते रहता है। चार गो बकलोल फलतुआ के बैठाके बहस वहस करते रहते है। मर्दवा तो संजय सिंह था कभी दरोगा से लेकर मंत्री के के तिवारी के खिलाफ लिखते रहता था। दर्पण सिंह तो खन्न से डुमरांव की खबर बना देते थे लेकिन दर्पण बो के डुमरांव इतना दुरूह निकला कि एक खबर नहीं लिख पाई भले ही वे दिल्ली में बड़की पत्रकार की चोटी गुहवा के घूम रही हो। शिवजी बाबा पत्रकारिता के अनजान ब्रहम है, उन्हीं से दीक्षा लेकर कई पत्रकार अपने पास एक अनजान ब्रहम रखे हुए हैं।अरुण विक्रांत सबको आक्रांत किये हुए हैं, खबर से अधिक. पर कमाने से कम।

अनिल ओझा होली में अब बदन का पियरी वस्त्र बटवा रहे है। डुमरांव के भास्कराचार्य रवि शंकर कई बार पियरी टी शर्ट पहन कर घूमे अभी हाड़े हरदी नहीं लग पाया है। प्रदीप जायसवाल शहर से इतरीछ हुए तो छठे छमाहे अब छठ में बीबी का नकफुली पहने फोटो छपवा ले रहे है। जबसे उनका रोटरी आंख अस्पताल खुला तबसे गरीब गुरबा का आंख ठीक हो रहा है और पत्रकारों का चश्मा का पावर बढ़ता जा रहा है। डुमरांव के सारे पत्रकार अब चश्मा लगा रखे हैं, खबरों में साफ दिख रहा है।

अमर नाथ का आंख दिखाई नहीं दे रहा पर चश्मा नहीं दिख रहा है। राजीव भगत अभी तक पूरा खबरनवीस नहीं बने हैं और न ही वकील बन पाए, झोल झाल मंडली के झोलटंगवा पत्रकार बन कर रह गए है। कहते है कि डुमरांव गोला में हर दुकानदार पैसा फेरते वक्त घलुआ में कुछ इलायची देता था, आज पत्रकार भी घलुआ में एक न्यूज वेबसाइट चला रहे है विधायक हो, मंतरी हो या थाना के दरोगवा हो, गढ़ पर सबकी खबर रहती हैं।

अस्पताल के डक्टरवा, नर्सवा, यहाँ तक कि सिपाहिनिया और उसके स्कूटी की खबर गढ़ के पास है। डुमरांव का गढ़, शाहाबाद का गढ़ है, शाहाबाद को समझना है तो गढ़ को समझना जरूरी है यह शाहाबाद का भाष्य नहीं टीका है और गढ़ कोई बकलोली का मुहल्ला नहीं है बल्कि होली का रंगोली है, रंग भी है अबीर भी है और इसररवा का टोपी भी है। गढ के आस पास के आबो हवा मे उस्ताद की शहनाई की धुन घुली हुई है ( रंग व उमंग का त्योहार … बुरा न मानें होली है…. मिलन व मोहब्बत का त्योहार…. आबाद रहे.