डेस्क। आज यानी 4 अक्टूबर 2024 को नवशक्ति के दूसरे स्वरूप मां ब्रह्मचारिणी की पूजा-उपासना की जाएगी। भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए उन्होंने घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इस देवी को तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया।
यहां ब्रह्म का अर्थ तपस्या से है। मां दुर्गा का यह स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल देने वाला है। इनकी उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है।
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥
ब्रह्मचारिणी का अर्थ तप की चारिणी यानी तप का आचरण करने वाली। देवी का यह रूप पूर्ण ज्योतिर्मय और अत्यंत भव्य है। इस देवी के दाएं हाथ में जप की माला है और बाएं हाथ में यह कमण्डल धारण किए हैं।
पूर्व जन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। एक हजार वर्ष तक इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया।
कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिव पत्र खाना भी छोड़ दिए। कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या करती रहीं। पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया।
कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा- हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की। यह तुम्ही से ही संभव थी।
तुम्हारी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ। जल्द ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं।
दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के इसी स्वरूप की उपासना की जाती है। इस देवी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहए। ां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्व सिद्धि प्राप्त होती है।
मंगल ग्रह पर आधिपत्य रखने वाली ब्रह्मचारिणी साक्षात ब्रह्मत्व स्वरूपा हैं।
प्रकाश निकलते हुए खिलते कमल जैसा इनका ज्योर्तिमय स्वरूप, शांत व निमग्न होकर तप में लीन हैं। इनके मुखमंडल पर कठोर तप के कारण अद्भुत तेज है। इनके दाएं हाथ में अक्षमाला व बाएं हाथ में कमण्डल है। ध्वल वस्त्र धारण किये हुए गरवर्णा देवी के कंगन, कड़े, हार, कुंडल व बाली आदि सभी जगह कमल जड़े हुए हैं।
ब्रह्मचारिणी का स्वरुप पार्वती का वो चरित्र है जब उन्होंने शिव अर्थात ब्रह्म को साधने हेतु तप किया था। कालपुरूष सिद्धांतानुसार मंगल प्रधान देवी व्यक्ति की कुंडली के पहले व आठवें घर पर अपनी सत्ता से व्यक्ति की बुद्धि, मानसिका, सेहत व आयु पर अपना स्वामित्व रखती है।
दक्षिण दिशा पर शासन करने वाली ब्रह्मचारिणी की पूजा लाल फूल, सिंदूर, गुड़ से करना चाहिए। इनकी साधना से मूर्ख भी सयाने बनते हैं, साधारण स्टूडैंट को भी डॉक्टर व इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में सफलता मिलती है व अत्यधिक क्रोध से मुक्ति मिलती है।
विशेष पूजन विधि:
घर की उत्तर-पश्चिम िशा में लाल कपड़े पर देवी ब्रह्मचारिणी का चित्र स्थापित करके विधिवत ूजन करें। आटे के दिए में चमेली के तेल का दीप करें, गुगल धूप करें, लाल फूल चढ़ाएं, सिंदूर चढ़ाएं, गुड़ से बने हलवे का भोग लगाएं व लाल चंदन या मूंगे की माला से इस विशेष मंत्र का 1 माला जाप करें।