विक्रांत। सबौर, बिहार: बिहार कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू), सबौर को विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी), भारत सरकार से तीन महत्वपूर्ण शोध परियोजनाएँ मिली हैं। ये परियोजनाएँ न केवल कृषि अनुसंधान और नवाचार में एक नई दिशा देंगी, बल्कि किसानों के सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियों का समाधान भी प्रस्तुत करेंगी। इनका उद्देश्य उन्नत अनुवांशिक अनुसंधान और जलवायु लचीलापन रणनीतियों के माध्यम से फसल उत्पादकता और गुणवत्ता को बढ़ावा देना है, जिससे किसानों की आय में वृद्धि और क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाना संभव हो सकेगा।

बीएयू की प्रतिष्ठा में वृद्धि और कृषि में नवाचार का नया अध्याय
बीएयू, सबौर के कुलपति डॉ. डी.आर. सिंह ने इन परियोजनाओं को एक बड़ी उपलब्धि बताते हुए कहा, “इन प्रतिष्ठित डीएसटी परियोजनाओं को प्राप्त करना कृषि नवाचार में बीएयू के नेतृत्व का प्रमाण है। हमारे रणनीतिक अनुसंधान क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करने से न केवल फसल उत्पादकता और गुणवत्ता में सुधार होगा, बल्कि बिहार और उससे आगे के किसानों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान में भी महत्वपूर्ण योगदान मिलेगा।
” डॉ. सिंह ने आगे बताया कि इन परियोजनाओं का उद्देश्य केवल वैज्ञानिक अनुसंधान तक सीमित नहीं है, बल्कि इनसे किसानों के लिए व्यवहारिक समाधान निकालने की भी योजना है। यह पहल राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के साथ-साथ सतत कृषि विकास को बढ़ावा देने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगी।
मखाना बीज के आकार के रहस्य को सुलझाना
पहली परियोजना का उद्देश्य मखाना (Euryale ferox Salisbury) में बीज के आकार को नियंत्रित करने वाले जीनों की पहचान और उनके कार्यात्मक सत्यापन पर केंद्रित है। इस परियोजना का नेतृत्व बीएसी सबौर के आणविक जीवविज्ञान विभाग के डॉ. पंकज कुमार कर रहे हैं।
मखाना: बिहार की आर्थिक धरोहर और वैश्विक बाजार की अपार संभावनाएँ
मखाना, बिहार के उत्तर-पूर्वी जिलों – मधुबनी, दरभंगा, कटिहार, और पूर्णिया में व्यापक रूप से उगाया जाता है। इसके पौष्टिक गुणों और औषधीय उपयोगिता के कारण मखाना को “सुपरफूड” का दर्जा प्राप्त है। हालांकि, इसके बीज के आकार में भिन्नता किसानों के लिए एक बड़ी चुनौती बनी हुई है, जो इसके बाज़ार मूल्य और उत्पादकता को प्रभावित करती है।
क्या है इस परियोजना का उद्देश्य?
• मखाना के बीज के आकार में होने वाले महत्वपूर्ण भिन्नताओं को समझना और यह पता लगाना कि यह भिन्नता आनुवंशिक कारकों के कारण है या पर्यावरणीय प्रभावों के कारण। क्वांटिटेटिव ट्रेट लोकस (QTL) मैपिंग और जीनोम-वाइड एसोसिएशन स्टडी (GWAS) का उपयोग करके बीज के आकार से जुड़े जीनों की पहचान करना।
• CRISPR-Cas9 जीन एडिटिंग तकनीक का उपयोग करके इन जीनों के कार्यात्मक सत्यापन द्वारा यह समझना कि वे किस प्रकार बीज के आकार को नियंत्रित करते हैं।
कैसे मिलेगा किसानों को लाभ?
इस अध्ययन से प्राप्त ज्ञान के आधार पर एकसमान और बड़े आकार के बीज वाली मखाना किस्मों का विकास किया जा सकेगा, जिससे उत्पादकता और बाजार मूल्य में वृद्धि होगी। यह न केवल किसानों की आय में वृद्धि करेगा, बल्कि मिथिला क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को भी सशक्त बनाएगा।
जलवायु परिवर्तन के बीच चावल की गुणवत्ता में सुधार
दूसरी परियोजना का उद्देश्य बदलती जलवायु परिस्थितियों के बीच चावल की गुणवत्ता में सुधार पर केंद्रित है। यह अध्ययन विशेष रूप से रात के तापमान में वृद्धि के प्रभावों का विश्लेषण करेगा, जो चावल की गुणवत्ता को अधिक नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।
चावल की गुणवत्ता पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
चावल, भारत की खाद्य सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण घटक है। लेकिन हालिया जलवायु परिवर्तनों के कारण, विशेषकर रात के तापमान में वृद्धि के कारण, चावल की स्टार्च संरचना, अनाज की बनावट और स्वाद पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
कैसे करेगा यह शोध मदद?
• जलवायु-लचीले जीनोटाइप्स की पहचान कर उन्हें नई चावल किस्मों के विकास में शामिल किया जाएगा।
• ABAR (ABA Receptor) और HSP (Heat Shock Protein) जैसे प्रमुख तनाव-सहिष्णु जीनों की पहचान कर उन्हें फसल सुधार में उपयोग किया जाएगा।
• यह अध्ययन न केवल चावल की गुणवत्ता में सुधार करेगा, बल्कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को भी मजबूत करेगा।
काली हल्दी के जीनोम को समझना
तीसरी परियोजना, जिसका नेतृत्व डॉ. पवन कुमार जयसवाल कर रहे हैं, काली हल्दी (Curcuma caesia) के संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण (Whole Genome Sequencing) पर केंद्रित है।
काली हल्दी: भारतीय पारंपरिक चिकित्सा का खजाना
काली हल्दी एक दुर्लभ और बहुमूल्य औषधीय पौधा है, जो इसके शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट, कैंसर-रोधी यौगिकों और एंटी-इंफ्लेमेटरी गुणों के लिए जाना जाता है। इसके बावजूद, इसके आनुवंशिक और जैव-आणविक आधार पर अब तक कोई व्यापक अध्ययन नहीं हुआ है।
क्या है इस परियोजना का उद्देश्य?
• नेक्स्ट-जनरेशन सीक्वेंसिंग (NGS) तकनीक का उपयोग कर काली हल्दी का डि नोवो जीनोम असेम्बली और जीन एनोटेशन करना।
• इसके बायोएक्टिव यौगिकों के बायोसिंथेटिक मार्गों की पहचान और उनके औषधीय गुणों को समझना।
• फाइटोकेमिकल्स की पहचान कर उनके औद्योगिक और औषधीय उपयोग को बढ़ावा देना।
भारत में औषधीय पौधों के संरक्षण को मिलेगा बढ़ावा
यह शोध न केवल काली हल्दी के संरक्षण और सतत खेती के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा, बल्कि इसके औषधीय गुणों का व्यावसायिक उपयोग भी बढ़ाएगा, जिससे किसानों को आर्थिक लाभ मिलेगा।
कृषि अनुसंधान में नवाचार और किसानों के कल्याण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम
बीएयू, सबौर के अनुसंधान निदेशक डॉ. अनिल कुमार सिंह ने कहा, “हमारा लक्ष्य है कि उन्नत अनुसंधान के माध्यम से किसानों को बेहतर फसल किस्मों और स्थायी कृषि प्रथाओं से सशक्त बनाकर उनकी आय में वृद्धि और जीवन स्तर में सुधार हो सके।”
ये परियोजनाएँ बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर की अग्रणी अनुसंधान क्षमता और नवाचार में उत्कृष्टता को दर्शाती हैं। यह पहलें न केवल कृषि उत्पादकता और गुणवत्ता को बढ़ावा देंगी, बल्कि किसानों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को भी सुनिश्चित करेंगी। इन परियोजनाओं से बिहार के कृषि क्षेत्र में एक नई क्रांति का मार्ग प्रशस्त होगा और इसे वैश्विक स्तर पर एक नई पहचान मिले।