पुलिन त्रिपाठी।
वो ज़ाफरानी पुलोवर उसी का हिस्सा है, कोई दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे।
बशीर बद्र साहब का यह शे’र वैसे तो हर शख्शियत के लिए मुनासिब है। मगर बात की जाए पिता की तो शायद इसकी खूबसूरती दोबाला हो जाती है।
संस्कृत का एक श्लोक है-
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परम तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः।।
इसका मतलब है कि पिता ही धर्म है, पिता ही स्वर्ग वही तप भी है। और पिता की प्रतिमा तो सभी देवताओं की भी प्रिय है।
मां की शान में तो तमाम शायरियां और कोट्स मौजूद हैं। मुनव्वर राणा साहब तो इन शाइरी के लिए खासे मकबूल भी है। पर पिता की बढ़ाई आपको काफी तलाशने पर ही मिलेगी। इसकी वजह यह है साहब कि पिता की भूमिका को समझने में हमें तमाम उम्र का हिसाब करना पड़ता है। वैसे तो पिता को सबसे ज्यादा लगाव बेटियों से होता है, ऐसा फ्रॉयड की थ्योरी कहती है। इसी थ्योरी के मुताबिक बेटियां भी पिता को ही अपना रोल मॉडल मानती है। इसमें ज्यादा विस्तार से नहीं जाते हैं। क्योंकि यह कुछ-कुछ हारमोन्स और साइंस की बातें हो जाएंगी।
यहां इंसानी भावनाओं का जिक्र करना ज्यादा मुनासिब होगा। इस बारे में मनोचिकित्सकों की मानें तो जब आप और हम बच्चे होते हैं तो पिता के बाजुओं में जिंदगी बड़ी सुरक्षित लगती है। फिर आती है किशोर अवस्था जहां पर विद्रोही स्वभाव के कारण पिता से बड़ा दुश्मन शायद ही कोई लगता है। उनका बात-बात पर रोकना और टोकना किशोर से युवा हो रहे मन को नहीं भाता है। फिर शादी के बाद तो स्थितियां और भी खराब हो जातीं हैं। चिकित्सकों के मुताबिक इस दौर में तो आदमी यह मानने लगता है कि पिता ने आखिर उसके लिए किया ही क्या।
चिकित्सकों के मुताबिक जब वही युवक या युवती खुद पैरेंट बनते हैं तो लगता है कि हमारे माता-पिता और खास तौर पर पिता ने हमें क्या अच्छे संस्कार दिए। आजकल के बच्चे तो उफ्फ…। फिर धीरे-धीरे लगने लगता है कि हमारे पिता ने हमें पालने के लिए कितना संघर्ष किया है। फिर 60 साल की उम्र आते आते आते लगने लगता है कि हम कैसी परवरिश दे पाए अपने बच्चों को। काश पिता की तरह वह भी संस्कार दे पाते। यानी पूरी उम्र गुजर जाती है पिता को समझने में।