हेमंत कुमार/पटना। कोसी कभी तेज तो कभी मंथर गति से बहती रहती है, लेकिन कोसी नदी के तटबंधों के बीच के लोगों की जीवन की गति बदलती ही नहीं! उनके बुनियादी सवाल जैसे पुनर्वास, शिक्षा और स्वास्थ्य जस के तस हैं। इन्हीं सवालों पर रविवार को कोसी के पीड़ितों के संग अलग-अलग क्षेत्र के लोगों की बातचीत हुई।
अनुग्रह नारायण सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान में चली लंबी बातचीत में कोसी नदी के तटबंधों के बीच के लोगों की समस्या और उसके समाधान को लेकर नया नजरिया भी सामने आया। कृषि कानूनों के खिलाफ सालभर चले किसान आंदोलन की नजीर देकर बताया गया कि जिस तरह केंद्र सरकार किसानों के सामने झुकी है, उसी तरह राज्य सरकार को भी को कोसी पीडितों के आगे झुकना होगा. बशर्ते कोसी पीडित करीब चार लाख परिवारों में से केवल एक-एक व्यक्ति को सड़क पर उतरना होगा।
पूर्व मंत्री और मधेपुरा से राजद विधायक प्रो. चंद्रशेखर ने कहा कि कोसी के पीडितों को समस्या नहीं सवाल बनकर सरकार के सामने तनकर खड़ा होना होगा।जिस दिन पीडित परिवार सड़क पर उतर जायेंगे, उसी दिन सरकार को झुकना होगा। संपूर्ण विपक्ष को यह सवाल विधानसभा में जोरशोर से उठना चाहिये। बातचीत में पीडित परिवारों की दशकों से हो रही उपेक्षा को जाति के नजरिया से भी देखने की बात की गयी।
पटना विश्वविद्यालय में संस्कृत के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अमित पासवान ने अपने शोध कार्य का हवाला देकर बताया कि दरअसल विस्थापन और बुनियादी सुविधाओं का संकट झेल रहे कोसी के तटबंध के बीच के लोग पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक जमात से हैं। यही वजह है कि दशकों से उनकी उपेक्षा हो रही है। सत्ता प्रतिष्ठान उनकी आवाज सुन ही नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि हमें याद रखना चाहिए, विकास का सामाजिक संदर्भ होता है और जिस सामाजिक पृष्ठभूमि के लोग पीड़ित हैं, उनको अपनी राजनीतिक ताकत दिखानी होगी, तभी उनकी बात सुनी जायेगी।
भाकपा माले के वरिष्ठ नेता राजाराम ने कहा कि उनकी पार्टी के विधायक कोसी पीडितों का सवाल 3 मार्च को विधानसभा में उठायेंगे। माले नेता ने कहा कि कोसी के तटबंध के बीच के लोगों को सरकार नागरिक समझती ही नहीं है। ऐसे में उस क्षेत्र के लोगों को अपने वोट की ताकत का अहसास कराने के लिए एकजुट होकर आगे आना होगा। उन्होंने कहा कि कोसी क्षेत्र की पीडित जनता की ताकत इतनी तो है कि दर्जन भर से अधिक विधानसभा सीटों पर वे किसी की जीत और हार तय कर सकते हैं।
कोसी नव निर्माण मंच की ओर से आयोजित इस बातचीत की सदारत कर रही बाल संरक्षण आयोग की पूर्व अध्यक्ष निशा झा ने कहा कि सच्चाई यह है कि सरकार समस्या बनाये रखना चाहती है वरना काम करने वाले अफसरों को उस क्षेत्र में काम करने का मौका दिया जाता। उन्होंने अपने पति सीनियर आइएएस अफसर रहे दिवंगत मदन मोहन झा से जुडा एक वाकया सुनाया। उनके पति 1984 में सहरसा के डीएम तैनात किये गये थे। उन्होंने तटबंध की रक्षा करने के लिए बेहतरीन कदम उठाये। लोगों ने उन्हें आरुणि की उपाधि दी लेकिन आपदा में अवसर तलाशने वालों को उनका काम और नाम पसंद नहीं आया। सरकार ने छह महीने के भीतर उनका तबादला कर दिया गया था।
बाढ के सवाल पर कम कर रहे वरिष्ठ पत्रकार शशिभूषण ने कहा कि एक बडी आबादी को राहतजीवी बनाकर रखने का मकसद क्या हो सकता है, इस पर गौर करना चाहिए। आज तटबंधों के भीतर रहने वालों की ही नहीं, नदियों की हालत भी बेहद खराब है। हमें याद रखना चाहिए कि सरकार वोट की ताकत से ही डरती है। बातचीत के दौरान पीड़ित परिवार के लोगों ने अपनी पीडा साझा की।
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उनमें घर और खेती गंवा चुके लोग थे। दूसरों की जमीन पर रिफ्यूजी की तरह छप्पर डालकर रह रहे लोग थे। बातचीत का संचालन कर रहे कोसी नवनिर्माण मंच के संयोजक महेंद्र यादव ने कहा कि बातचीत में तटबंध के भीतर के पंद्रह गांवों के लोग पहुंच हैं। इनको न खेत के बदले खेत मिला, न घर के बदले घर मिला। पुनर्वास के नाम पर जो जमीन मिली, वह या तो बसने लायक नहीं है। अगर बसने लायक है तो उसपर दबंगों का कब्जा है। कोसी पीड़ितों की पीड़ा का ऐतिहासिक संदर्भ पेश किया विनोद कुमार ने।