डेस्क/बिफोर प्रिंट। शहनाई की मिठी आवाज कान में सुनाई पड़ते ही गंगा-जमुनी तहजीब की बिरासत को संजोने वाले उस्ताद का नाम जेहन में आ जाता है। कभी डुमरांव राज परिवार द्वारा निर्मित बांके बिहारी मंदिर से शहनाई के स्वर की यात्रा शुरू कर देश की राजधानी दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किला पर शहनाई की मिठी स्वर निकालने वाले उस्ताद को वर्तमान पिढ़ी बिसरने लगी है। उनके पैतृक नगर डुमरांव में लोक वाद्य यंत्र शहनाई को भारतीय शास्त्रीय संगीत का अभिन्न अंग बनाने वाले उस्ताद की हसरतें अधूरी रह गई।
उस्ताद की जन्म स्थली डुमरांव में उनके याद को संजोने व संवारने में अब तक राज्य सरकार विफल है। उस्ताद की आखिरी उनके पैतृक निवास स्थान पर संग्रहालय बनाए जाने की इच्छा पूरी नहीं हो सकी। उनकी याद में संगीत महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय निर्माण कराए जाने का मामला अधर में लटका हुआ है।
उस्ताद बिस्मिल्ला खां का जीवन-वृत-
बिहार प्रांत के पुराने शाहाबाद (अब बक्सर) जिलान्र्तगत डुमरांव नगर स्थित बंधन पटवा रोड (भीरूंग राउत की गली) के निवासी बचई मियां के घर-आंगन में विगत 21 मार्च,1916 को उस्ताद बिस्मिल्ला खां का जन्म हुआ था। जब उस्ताद की पैदाईश हुई तो उनके परिजनों के बीच खुशी की लहर दौैड़ गई थी। बाल्य काल में पढ़ाई लिखाई करते हुए शहनाई के फनकार पिता बचई मियां के साथ बिस्मिल्ला खां छाया की तरह रहा करते थे।
उस्ताद को उनके पिता द्वारा महज आठ साल की उम्र में ही डुमरांव राज परिवार द्वारा निर्मित प्राचीन बांके बिहारी मंदिर के प्रांगण में शहनाई की रश्म-छूआई कराया गया था। बाल्यकाल में बिस्मिल्ला खां अपनें पिता के साथ बांके बिहारी मंदिर (राधा-कृष्ण मंदिर) में सुबह-शाम आरती के समय कई साल तक नित्य शहनाई की सुर साधना करने वाले संगीत की दुनिया से जुड़े अपने मामा अली बख्श के बुलावे पर बाराणसी (काशी) ननिहाल चले गए। वहां पवित्र गंगा नदी के तट पर शहनाई की सुर साधना शुरू कर दी।
महज 14 साल की उम्र में उस्ताद पहली बार उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में शहनाई की प्रस्तुति दी और सम्मेलन में छा गए। आगे चलकर उन्होनें लोक वाद्य शहनाई को भारतीय शास्त्रीय संगीत का अभिन्न अंग बनाकर अपना नाम पूरे विश्व में रौशन कर दिया। स्थानीय नगर के नागरिक उस्ताद के प्रसिद्धि को बांके बिहारी की असीम कृपा मानते ।
‘उस्ताद की जमीन भी बिक गई,संग्रहालय नहीं बना’
उस्ताद 21 अगस्त,2006 को दुनिया से अलविदा हो गए। उन दिनों सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनके प्रति शोक संवेदना व्यक्त करते हुए उस्ताद की स्मृति मेें संग्रहालय एवं प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा की गई थी। संग्रहालय के निर्माण को लेकर समय समय पर प्रशासनिक अधिकारियों का कारवां उस्ताद के बंधन पटवा रोड के भीरूंग राउत की गली स्थित पैतृक जमीन पर आवागमन जारी रहा।
संग्रहालय का निर्माण कराए जाने को लेकर ताना-बाना बुना जाता रहा। उनके बाल्य काल के रियाज स्थल बांके बिहारी मंदिर के उस बरामदे को विकसित करने के लिए डुमरांव राज परिवार से संर्पक स्थापित करने एवं उनके पैतृक जमीन पर संग्रहालय का निर्माण कराने के लिए उस्ताद के पुत्रो से सहमति लेने को योजना बनाई जाती रही। पर नतीजा शून्य निकला। अलबता उस्ताद की जमीन को उनके अपनों ने जमीन का सौदा कर डाली।
उस्ताद को निकट से जानने वाले वयोवृद्ध कला प्रेमी सत्यनारायण प्रसाद, पत्रकार सह पूर्व सांसद अली अनवर, साहित्यकार व रंग कर्मी शंभू शरण नवीन एवं मुरली मनोहर श्रीवास्तव कहते है कि उस्ताद ने अपनी सुर साधना के माध्यम से जीवन पर्यंत गंगा जमुनी तहजीब को जीवंत बनाए रखा।
‘डुमरांव से नाता जोड़े रहने को उस्ताद ने छोड़ी छाप’
शहनाई के शंहशाह उस्ताद व उनके शहनाई के फनकार पिता बचई मियां शहनाई वाद्य यंत्र बजाने में महत्वपूर्ण हिस्सा बांस के बने चाभ का इस्तेमाल किया करते थे। पेशे से शहनाई वादक उनके चाचा पचकौड़ी मियां, चचेरा भाई मुन्ना खां एवं उनके पिता भले यहां से चले गए। लेकिन शहनाई बजाने में डुमरांव के बांस का निर्मित चाभ का अब भी उस्ताद के परिजन इस्तेमाल करते है।
उस्ताद द्वारा दुनिया को अलविदा कहने के बाद भी उनके पौत्र अफाक हैदर खां सहित उनके अन्य रिश्तेदार का चाभ के लिए डुमरांव नगर में आना जाना लगा रहता है। उस्ताद के पांच पुत्रों में जीवित नाजीम हुसैन तबला वाद्यन एवं पौत्र अफाक हैदर खां शहनाई वादन के क्षेत्र में मशहूर है।आज भी पौत्र व पुत्र का आवागन डुमरांव में बना हुआ है।