Nawada : ‘सत्य’ को ईश्वर मानता है वैष्णव मत :- रामरतन प्रसाद सिंह रत्नाकर

नवादा

Rabindra Nath Bhaiya: हिन्दू धर्म का प्रचार एवं प्रसार पुराणों के माध्यम से संभव हुआ। पौराणिक धर्म में वैदिक, अवैदिक एवं जनसामान्य के धार्मिक विश्वासों का समन्वय मिलता है, पौराणिक धर्म का उद्देश्य वैदिक धर्म को सरल ढंग में प्रस्तुत करना है। हिन्दू धर्म की नीति निर्देशकों के चिंतनधारा में एवं दृष्टिकोणों में सब कुछ सामान्य प्रतीत होने के बाद भी ईष्ट देवों एवं पूजन विधियों को लेकर अन्तर भी स्पष्ट है। विष्णु के विभिन्न अवतारों की कल्पना हुई:- अधिकांश पुराणों में विष्णु के दस अवतार का वर्णन हुआ है। भागवत पुराण में विष्णु के 24 अवतार गिनाए गए हैं। अवतारवाद वैष्णव चिंतनधारा का महत्वपूर्ण हिस्सा है, अवतारवाद के कारण मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ।

पुराणों में विष्णु के दस अवतारों का विवरण इस प्रकार है:-
1.मत्स्य अवतार- कथा के अनुसार जब पृथ्वी जल प्लावन से भयभीत हो गयी तब विष्णु ने मत्स्य के रूप में अवतार लेकर मनु, उनके परिवार तथा सात ऋषियों को जलपोत में बैठाकर, जिसकी डोर मत्स्य की सींग में बंधी हुई थी रक्षा की। उन्होंने प्रलय से वेदों की भी रक्षा की।
2.कूर्म अथवा कच्छप अवतार- प्रलय के समय अमृत तथा कई ढंग के रत्न एवं समस्त बहुमूल्य पदार्थ समुद्र में विलीन हो गये। विष्णु कच्छप रूप धारण कर समुद्र तल में प्रवेश कर गये। देवताओं ने उनकी पीठ पर मन्दराचल पर्वत रखा तथा नागवासुकि को डोरी बनाकर समुद्र मन्थन किया। परिणामस्वरूप अमृत तथा लक्ष्मी समेत चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई।
3.वराह- हिरण्याक्ष नामक राक्षस ने एक बार पृथ्वी को विश्व सिन्धु की रक्षा के लिए विष्णु ने वराह (शूकर) रूप धारण कर और सिन्धु से वापस पृथ्वी को पूर्व निश्चित स्थान पर स्थापित किया।
4.नृसिंह अवतार- प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नामक राक्षस ने ब्रम्हा से वरदान प्राप्त कर लिया कि उसे देवता और मनुष्य कोई नहीं मार सकता। यह भी कि वह न तो दिन में और न ही रात्रि में मारा जा सकता है। अहंकारी हिरण्यकश्यप ने देवता और मनुष्यों पर अत्याचार करना प्रारम्भ किया। अपने विष्णु भक्त पुत्र प्रह्लाद को भी प्रताड़ित किया। प्रह्लाद की पुकार पर विष्णु ने नृसिंह अवतार लिया और हिरण्यकश्यप को गोधूलि के समय मार डाला और भक्त प्रह्लाद को राजा बनाया।
5.वामन अवतार- बलि नामक राक्षस ने तपस्या के बल से विश्व पर अधिकार कर लिया। तब विष्णु ने वामन अवतार धारण कर बलि से तीन पग भूमि माँगी। बलि ने स्वीकार कर लिया। विष्णु ने अत्यन्त विशाल शरीर धारण कर लिया तो मात्र दो पग में पृथ्वी, आकाश नाप दिया। तीसरा पग नहीं उठाया तथा बलि को पाताल में छोड़ दिया।
6.परशुराम अवतार- यमदग्नि नामक गृहस्थ ब्राह्मण के पुत्र रूप में विष्णु ने परशुराम अवतार लिया। ब्राह्मण धर्म की नई व्याख्या सामने रखा। शास्त्र और शस्त्र को समय और आवश्यकतानुसार उपयोग की अनुमति प्रदान की। प्रजा को सताने वाले अहंकारी क्षत्रियों का इक्कीस बार विनाश कर डाला। खेती करने वालों के बीच भूमि आवंटित किया।
7.रामावतार- अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र के रूप में विष्णु ने राम के रूप में अवतार लिया राम ने पारिवारिक जीवन, राजा के कर्तव्यों को रेखांकित किया। आर्य जाति के विकास यात्रा का विस्तार किया । अहंकारी रावण सहित कई राक्षसों का संहार किया। राम पुरुषोत्तम माने गये हैं।
8.कृष्णावतार- वासुदेव तथा देवकी के पुत्र रूप में विष्णु का कृष्णावतार हुआ। कृष्ण-लीलापुरुष माने गये हैं। पांडवों को राजा और राजाधिराज बनाने के लिए कल, बल, छल का उपयोग किया। मथुरा आस-पास के लोग कृष्ण को अवतारी मानते हैं।
9.बुद्धावतार- पुराणों के अनुसार विष्णु का अंतिम अवतार बुद्ध के रूप में हुआ। जयदेव कृत गीत गोविन्द के अनुसार प्राणियों के प्रति दया दर्शाने रक्तरन्जित पशुबलि जैसी प्रथाओं को रोकने एवं जन्म के स्थान पर कर्म और ज्ञान को महत्व प्रदान करने के लिये कलियुग अर्थात वर्तमान युग में भगवान विष्णु ने बुद्ध के रूप में क्षत्रिय कुल में जन्म लिया।
10.कल्कि अवतार- कल्पना की गयी है कि कलियुग के अन्त में विष्णु हाथ में तलवार लेकर श्वेत अश्व पर सवार हो पृथ्वी पर अवतरित होंगे। वे दुष्टों का संहार करेंगे, पृथ्वी पर पुनः स्वर्ण युग स्थापित होगा। श्रीमद्भागवत पुराण में जिन 24 अवतारों को गिनाया गया है कई कारणों से वेण पुत्र राजा पृथु के रूप में विष्णु का अवतरण महत्वपूर्ण माना गया है। ब्रह्मपुराण की कथा के अनुसार राजा पृथु ने पृथ्वी का दोहनकर विभिन्न प्रकार की अन्न एवं औषधि उत्पन्न की इस कारण मानव जाति एवं सभी प्राणियों के लिए यह अवतार कल्याणकारी हुआ। राजा नाभि की पत्नी मेरू देवी के गर्भ से ऋषभ देव के रूप में भगवान विष्णु का अवतरण हुआ। भागवत पुराण के अनुसार इस रूप में उन्होंने पर हंसो का मार्ग, जो सभी आश्रमिओं के लिए वन्दनीय है, दिखाया। भागवत पुराण के अनुसार देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और साश्त्वत तन्त्र का उपदेश दिया। जिसे नारद पाँचरात कहते हैं।

इसमें कर्मबन्धन मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है। अवतारवाद की अवधारणा के मूल वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध हैं, वैदिक साहित्य में एक देव अनेक रूपों में आविर्भूत हो जाते हैं अर्थात वह एक ईश्वर इन्द्र, वरुण, अग्नि, मित्र और अर्यमा हैं। इसके अतिरिक्त वामदेव सूक्तम में उत्पत्तिवादी अवतारवाद का दर्शन भी होता है। वैदिक इन्द्र को ऋषि श्रृंगवृष का पौत्र माना गया है अर्थात इन्द्र भी पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में अवतरित हुए थे। वैदिक इन्द्र तथा सूर्य ही परवर्तीकाल के अवतारवादी विष्णु हैं। मास्क ने प्रयोजनवश देवों का आविर्भाव स्वीकार किया है, वैदिक साहित्य में जिन अवतारों की चर्चा मिलती है, वे प्रजापति के अवतार हैं और अवतारवाद का सम्बंध पौराणिक काल में भगवान विष्णु से है। अतः माना जा सकता है वैदिक काल, महाकाव्यों के काल और पुराणों के काल में यह भावना और विकसित हुई है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में बार-बार सृष्टि की उत्पत्ति जल से मानी गयी है। कई बार जलप्रलय होने की बात भी है। अगर जीव विज्ञान को देखा जाय तो उसमें भी यह विचार है कि सबसे पहिले जलचरों की उत्पत्ति हुई है।

भगवान का मत्स्य और कच्छप अवतार वैज्ञानिक और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। वैष्णव धर्म जो हिन्दू धर्म की शाखा है इस कारण वैष्णव सम्प्रदाय के रूप में भी जाना जाता है। वैष्णव धर्म के एक अंग के रूप में वैष्णव भागवत धर्म की उत्पत्ति परम्परा के अनुसार वासु प्रवर्तक वृष्णि (सात्त्वत) वंशी कृष्ण थे जिन्हें वासुदेव का पुत्र होने के कारण वासुदेव कृष्ण माना गया है। वे मूलत: मथुरा के निवासी थे। वे वृष्णि कबीले के प्रमुख थे। ईसवी सन् के प्रारम्भ होने से पूर्व उनको देवता के रूप में मथुरा के पास और पश्चिम भारत के सीमित हिस्से में माना जाता था। काशी से आगे मगध और अंगदेश में विष्णु की पूजा शालीग्राम को रखकर की जाती थी। वे नारायण चतुर्भुज विष्णु को मानते हैं। वैष्णव सम्प्रदाय में ओइम या ओंकार का नाद प्रतीक माना गया है। यह सर्वमान्य है कि सृष्टि के प्रारम्भ में केवल नाद था। भारतीय संस्कृति में सभी ढंग के यज्ञ एवं अनुष्ठान या शुभ कार्य ओइम के उच्चारण के साथ होता है। कई मान्य विद्वानों के अनुसार “ॐ” वेदत्रयी का प्रतिनिधित्व करता है तो कई विद्वानों के अनुसार ॐ में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का सम्मिश्रण है।

मुंडकोपनिषद में ओइम को धनुष और पवित्र एकाग्र मन की वाण के रूप में तुलना की गयी है जिसमें ब्रह्म की प्राप्ति की चाहत है। शंख भी नाद का प्रतीक है। यह ओइम का प्रतीक माना जाता है। कहा जाता है कि शंख की ध्वनि से कठिन काल समाप्त हो जाता है। मान्यता है कि समुद्र की लहरों में पोषित शंख, शंखासुर नामक राक्षस, जिसे मारने के लिए श्री विष्णु ने मत्स्यावतार लिया था। शंख से निकला स्वर सत्य की विजय का प्रतिनिधित्व करता है। यज्ञोपवीत से तात्पर्य है परमात्मा के निकट ले जाने वाला इसका एक और नाम यज्ञसूत्र भी है। यज्ञोपवीत या उपनयन संस्कार ब्रह्म की और प्रवृत्त करने वाला दूसरा जन्म कहलाता है। यज्ञोपवीत में तीन मुख्य सूत्र होते हैं- प्रत्येक सूत्र नौ तंतुओं में बंटे होते हैं। ये नौ तंतु नौ देवताओं ॐ, अग्नि, नाग, सोम, पितर, प्रजापति, वायु, सूर्य सबदेव के नाम पर हैं। यज्ञोपवीत धारण कर्ता का मार्गदर्शक है। वैष्णव सम्प्रदाय में सत्य को सबसे महत्वपूर्ण एवं श्रेष्ठ गुण माना जाता है। विश्व की भलाई का संस्कारगत भाव है और सभी ढंग की हिंसा की निन्दा करने का साधनायुक्त भाव है। वैष्णव पूजा विधान में अन्न, फल, फूल का उपयोग होता है।

सबों के प्रति दया और करुणा के भाव वैष्णव सम्प्रदाय का मुख्य लक्ष्य है। विष्णु इन्द्र के बाद हुए थे। इन्द्र के बाद होने के कारण ही विष्णु का एक नाम उपेन्द्र इन्द्रावरजः (अमरकोष) पड़ा। इन दोनों ही नाम का अर्थ है इन्द्र का परवर्ती। डॉ० भण्डारकर का मत है कि प्राचीन काल में वैष्णव धर्म मुख्यतः तीन तत्वों के योग से उत्पन्न हुआ था। पहला तत्व तो यह विष्णु नाम ही है, जिसका वेद में उल्लेख है, सूर्य के अर्थ में मिलता है। दूसरा तत्व नारायण धर्म का है जिसका विवरण महाभारत के शान्ति पर्व में उपलब्ध है, तीसरा तत्व वासुदेव मत है। वैदिकों ने विष्णु और शिव को महत्वपूर्ण नहीं माना और कई ढंग के विरोध के बाद भी वैदिक धर्म का प्रचलन भी कायम है। वैष्णव परंपराओं में दस अवतारों में मात्र चार अवतार पूर्ण मानव रूप का है जिसमें परशुराम, राम, कृष्ण और बुद्ध हैं । कृष्णावतार पर आम जनों के साथ विद्वानों के बीच भी गहरे मतभेद हैं।

संस्कृति के चार अध्याय पुस्तक में रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है- गोपाल कृष्ण का उल्लेख आर्यों के प्राचीन साहित्य में नहीं मिलता और राधा का उल्लेख वैष्णव धर्म में इतनी पूजित है, वैष्मेव मत के अत्यन्त प्रमुख पुराण, श्रीमदभागवत में नहीं है। कृष्ण के ग्वाल रूप की कल्पना और राधा के साथ उनके प्रेम की कथा बाद में आयी, ये कथाएँ शायद आर्योत्तर जातियों में प्रचलित थीं। कृष्ण के नाम पर मथुरा और द्वारका में प्राचीन मन्दिर हैं। द्वारकापुरी मंदिर के संदर्भ में रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा कि यह मन्दिर प्राचीन काल में सूर्य मन्दिर था, यह बात लेखक को द्वारका में बसने वाले पंडितों ने सुनाई।

मध्यकालीन धर्म साधना में पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी का अनुमान है कि ब्रह्मवैवर्त पुराण 16वीं शताब्दी में पश्चिम बंगाल में लिखा गया और उसके लेखक का गीतगोविन्द से परिचय था। पद्म पुराण में वृन्दावन की नित्य लीला की चर्चा है, राधा नाम आता है, पर यह पुराण बहुत पुराना नहीं कहा जा सकता और जिस अंश में राधा कृष्ण के नित्य विहार की चर्चा है, वह तो निस्संदेह परवर्ती है। जीवन के पग-पग पर शुद्धि, कर्म, विचार चिंतन में समन्वय और सभी ढंग की हिंसा की निन्दा करना, भक्ति मार्ग से धर्म, अर्थ, काम पर विजय पाकर मोक्ष की प्राप्ति की कामना वैष्णव भक्ति का हिस्सा है। कहा गया है कि वैष्णव औरों के दुखों से दुखी होते हैं और पारिवारिक धर्म के रूप में माँ पिता और पितरों की सेवा को सबसे बड़ा धर्म मानते हैं।

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