Patna/Shivanand : यूं तो बिहार में दुर्गापूजा कई जगह अलग अलग तरीकों से मनाया जाता है।लेकिन बेगूसराय के एक गांव में यह पूजा काफी खास तरीके से मनाया जाता है ।यहां खास तरीके से दुर्गा जी का निर्माण होता है। यहां न तो मिट्टी की प्रतिमा का निर्माण होता है और न ही वैसी साज सज्जा। यहां फूल से प्रतिमा का निर्माण होता है और विशेष तरीके से यहां रोज पूजा अर्चना होती है। जी हां!हम बात कर रहें हैं बेगुसराय जिला के बिक्रमपुर गांव के पूजा की।
कैसे जाएं बिक्रमपुर _ बेगूसराय शहर से करीब 20 किलोमीटर दूर मंझौल जाना होगा फिर वहां से करीब 10 किलोमीटर दूर बिक्रमपुर गांव। जाने आने के लिए आपको सवारी गाड़ी और बस मिल जाती हैं।लेकिन यहां जाने के लिए शाम में जाना ठीक होगा ताकि आप अच्छी तरह से वहां की पूजा ,तैयारी आदि देख सकते हैं। गांव के हर परिवार में पूजा के प्रति जो उत्साह और उमंग देखने को मिलता है वो बिरले ही मिलता हैं।
कैसे खास है यहां की पूजा
नवरात्र में विशेष पूजा पद्धति के लिए चर्चित क्षेत्र के विक्रमपुर गांववासी माता के भक्ति में सराबोर हो गए हैं। यहां रोजाना मां की आकृति बनाने के लिए फूल-बेलपत्र इकट्ठा करने के लिए गांव वालों का उत्साह देखते ही बनती है। मां की आकृति के साथ वैदिक रीति से होने वाली पूजा देखने के लिए श्रद्धालु यहां दूर-दूर से पहुंचते हैं और देर रात घर लौटते हैं। नवमी की पूजा तक पूरे गांव की आस्था मंदिर परिसर को देखते ही सहज लगाया जा सकता है। गांव वालों की मानें तो माता जयमंगला की असीम अनुकंपा के कारण गांव में सुख-शांति और समृद्धि है।
कब शुरू हुई यह परंपरा और क्या है कहानी
पुष्पराज कहते हैं कि मंझौल के पास जयमंगलागढ़ में मा दुर्गा की शक्तिपीठ है।लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व जयमंगलागढ़ में बलि प्रदान करने को लेकर पहसारा और विक्रमपुर गांव के जलेबारों में ठन गई थी। दोनों एक-दूसरे के जानी-दुश्मन बन गए थे। इसी दौरान नवरात्र के समय विक्रमपुर गांव के स्व. सरयुग सिंह के स्वप्न में मां जयमंगला आई थीं और उन्होंने कहा, नवरात्र के पहले पूजा से लेकर नवमी पूजा के बलि प्रदान करने तक मैं विक्रमपुर गांव में रहूंगी।
इसके पश्चात मैं गढ़ को लौट जाऊंगी। देवी ने कहा, वत्स अपने हाथों से फूल, बेलपत्र तोड़कर आकृति बनाकर धूप व गुंगुल से पूजा करो। उसी समय से यहां पर विशेष पद्धति से पूजा प्रारंभ हुई। आज भी उनके वंशज पूजा करते आ रहे हैं। तभी से गांव की आस्था माता जयमंगला पर बनी हुई है। आज भी इस गांव के लोग कोई शुभ कार्य प्रारंभ करने से पहले जयमंगलागढ़ जाकर मंदिर में माथा टेकते हैं।
एक विशेष परिवार के हाथों होती है पूजा
कलश स्थापन के दिन स्व. सिंह के वंशज मिलकर मंदिर में कलश की स्थापना करते हैं। रोजाना अपने हाथों से तोड़े गए फूल-बेलपत्र की आकृति बनाकर पूजा करते हैं। कालांतर में परिवार के विस्तार होने के कारण पहली पूजा तीन खुट्टी खानदान के चंदेश्वर सिंह आदि करते हैं। दूसरी पूजा पंचखुट्टी के सुशील सिंह वगैरह के द्वारा की जाती है।
शेष सभी पूजा नौ खुट्टी के वंशज राजेश्वर सिंह, परमानंद सिंह, कृत्यानंद सिंह, मोहन सिंह, नीरज सिंह उर्फ सोनू, शंभू सिंह, नंदकिशोर सिंह, लाला जी, रामकुमार सिंह, पुष्कर सिंह, विश्वनाथ सिंह आदि करते आ रहे हैं। अंत में नवमी पूजा के दिन स्व. सिंह के सभी वंशज की उपस्थिति में बलि प्रदान किए जाने के साथ पूजा संपन्न होती है।
यहां प्रत्येक पूजा गांव के अलग अलग परिवारों के जिम्मे बंटा होता है। जिस परिवार के जिम्मे जिस दिन की पूजा का जिम्मा होता है वो सुबह उठकर जयमंगलागढ़ से बेलपत्र और फूल तोड़कर लाता है या खरीदकर मंगवाता है।
करीब एक बोरा फूल और बेलपत्र की व्यवस्था होने के बाद शुरू होती है मां की प्रतिमा का निर्माण और साज सज्जा।फूल और बेलपत्र से ही मां की प्रतिमा का निर्माण होता है ,बेलपत्र से ही आंख बनाया जाता है,जब ये सब बनकर तैयार हो जाता है तब मां की प्रतिमा रूपी आकृति देखते ही बनती है।
गांव के शिक्षक गौतम कुमार कहते हैं कि
पूरे बिहार में यहां जैसी पूजा नही होती है।यह बरसों से चली आ रही है और इस परंपरा को यहां के लोग आज भी काफी अच्छी तरह जीवंत रखे हुए हैं।