फुलवारी शरीफ, अजीत। पटना के दीघा क्षेत्र में अवस्थित आवास बोर्ड द्वारा अधिग्रहित जमीन 1024 एकड़ पर गंभीर विवाद है। हंगामा, मारपीट, वाहनों में आगजनी, पथराव, तोड़-फोड़, धरना, आंदोलन आदि-आदि आम बात है। कोई भी इसके जड़ में नहीं जाना चाहता कि आखिर ये स्थिति आई ही क्यों ? क्यों छोटे मुद्दे को विकराल रूप धारण करने दिया गया ? मामले की जड़ में न जाने या पहले के गलत स्टेप से सीख न लेने के कारण ऐसा बार-बार हो रहा है और होगा ही। सरकार जिन्हें अतिक्रमणकारी कहती है उन अतिक्रमित बस्तियों में रोड/पानी/बिजली आदि की सुविधाएं भी उपलब्ध करवाती है। नगर क्षेत्र में पूरी तरह से सरकारी जमीन पर अवैध तरीके से बसी बस्तियों को नगर निगम/परिषद/पंचायत भी सभी आवश्यक सुविधाएं प्रदान करती है। उनसे होल्डिंग टैक्स भी वसूल करती है। ऊपर से उन्हें अतिक्रमणकारी कह कर उन्हें हटाने भी पहुंच जाती है। गज़ब का विरोधाभास। पहले बसने में मदद करो, फिर उजाड़ो।
सीधी बात यह है कि अगर आवास बोर्ड ने जमीन अधिग्रहित कर ली थी तो उस जमीन पर मकान कैसे बन गया? किसने बनने दिया? किसने बनवाने में मदद की? इस बाबत दीघा क्षेत्र के ही एक आदमी ने बताया कि जमीन अधिग्रहण का पैसा किसानों द्वारा नहीं लिया गया तो आवास बोर्ड ने जमीन का पैसा कोर्ट में जमा करवा दिया। इस बीच किसानों ने जमीन निजी लोगों को बेचना जारी रखा। बहुत सारी रजिस्ट्री बिहार सरकार द्वारा रोक लगाए जाने पर कोलकाता में कराई गई। 1993 में किसी भी प्रकार की रजिस्ट्री को बिहार सरकार द्वारा अमान्य करार दे दिया गया। तब तक बहुत देर हो चुकी थी और बहुत सारे मकान बना लिए गए थे।
बहरहाल, जब जमीन एक बार आवास बोर्ड द्वारा अधिग्रहित कर कोर्ट में पैसा जमा कर ही दिया गया तो वही जमीन किसानों द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को पुनः कैसे बेच दी गई? इस पर तो तत्काल प्रभाव से रजिस्ट्री पर रोक लग जानी चाहिए थी। अब निबंधन विभाग कहेगा कि हमको तो राजस्व से मतलब है, टाइटल देखने का पावर हमको है नहीं, इसलिए हमने निबंधन कर दिया। सरकार को यह देखना चाहिए कि मात्र गलत रजिस्ट्री हो जाने का कितना दुष्प्रभाव आज सभी लोगों को झेलना पड़ रहा है। चाहे वो आम आदमी हो या सरकारी आदमी हो। दोनों परेशान हैं। आम आदमी को इतनी जमीन संबंधी मामले की जानकारी नहीं होती है। उन्होंने पैसा दिया, जमीन निबंधित कराया और मकान भी बना लिया। न तो उन्हें रजिस्ट्री करवाते वक्त किसी सरकारी आदमी ने रोक-टोक किया न ही मकान बनाते वक्त।
उसकी तो सारी जमा-पूंजी गई। फायदा तो कुछ माफियाओं को ही हुआ जो जमीन बेच कर निकल गए। सरकार ने अगर किसी भी जमीन की रजिस्ट्री के पूर्व एलपीसी/शुद्धि-पत्र/अद्यतन लगान रसीद की कॉपी दस्तावेज के साथ संलग्न करना अनिवार्य किया होता (जो वह आसानी के साथ कर सकती है, कहीं कोई कानूनी अड़चन नहीं है) तो आज सभी के हित सुरक्षित होते। न जमीन बिकता, न मकान बनता। कोई विधि-व्यवस्था की समस्या भी नहीं रहती। इस बिंदु पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। सरकार ने इन जमीनों के निबंधन से जितना राजस्व हासिल किया होगा, उससे ज्यादा तो विधि-व्यवस्था बरकरार रखने में खर्च हो चुका होगा। साथ ही प्रशासन के प्रति लोगों के मन में अविश्वास की भी भावना आ चुकी होगी।