भारत-बांग्लादेश संबंध, एक असंतुलित सहयोग और उत्पन्न होते संकट

दिल्ली

डेस्क। भारत और बांग्लादेश के बीच संबंधों की ऐतिहासिक जड़ें, संस्कृति और व्यापार सभी क्षेत्र में गहरी है। भारत ने 1971 में पाकिस्तान से बांग्लादेश को अलग करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिससे दोनों देशों के बीच गहरे सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंध बने। दशकों तक इन संबंधों में सहयोग और समर्थन का माहौल रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में कुछ घटनाएं और बयानबाजी ने इन संबंधों को तनावपूर्ण बना दिया है।

बांग्लादेश के प्रधानमंत्री मोहम्मद युनुस और बांग्लादेश के आर्मी चीफ द्वारा भारत के खिलाफ किए गए अनावश्यक बयान और विवादित आरोपों से संबंधों में खटास आई है। इसके अलावा, कुछ बांग्लादेशियों द्वारा भारत की सीमा पर बीएसएफ के जवानों पर हमला भी चिंता का विषय बना है। इन घटनाओं ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि भारत का धैर्य कब तक बना रहेगा, जबकि बांग्लादेश अपनी ही आर्थिक बदहाली और सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा है।

हालांकि, भारत ने बांग्लादेश की मदद के लिए 16,000 टन चावल भेजा, लेकिन बांग्लादेश की सरकार का रवैया अब तक असंवेदनशील और अव्यावहारिक रहा है। पिछले कुछ वर्षों में बांग्लादेश ने अच्छा आर्थिक विकास दिखाया था, लेकिन 2024 के अंत में आए तथाकथित क्रांति के बाद उसकी स्थिति गंभीर हो गई है। वहां की बढ़ती हुई खाद्य असुरक्षा, किसानों की समस्याएं और बढ़ती हुई मांग ने स्थिति को और अधिक कठिन बना दिया है।

बांग्लादेश को अब यह समझने की आवश्यकता है कि भारत पर निर्भर रहते हुए भारत के खिलाफ बयानबाजी करना दीर्घकालिक रूप से लाभकारी नहीं होगा। बांग्लादेश को अपनी आर्थ‍िक स्थिति सुधारने के लिए जरूरी कदम उठाने चाहिए। अगर बांग्लादेश आत्मनिर्भरता की दिशा में बढ़ने के बजाय और भारत से मदद मांगने की बजाय अनावश्यक विवाद खड़े करने में लगेगा, तो यह बांग्लादेश के भविष्य को संकट में डालेगा।

भारत ने हमेशा वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से काम किया है, लेकिन जब कोई देश अपने इतिहास और रिश्तों को भूलकर गलत दिशा में आगे बढ़ता है, तो उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। बांग्लादेश को अपनी कृषि उत्पादन क्षमता को सुधारने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए, जैसे उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल, सिंचाई की व्यवस्था में सुधार और सब्सिडी की सहायता से किसानों को बेहतर मदद।

हालांकि बांग्लादेश के कुछ नेताओं का कहना है कि भारत से मदद मांगना देश की आत्मसम्मान के खिलाफ है, लेकिन यह केवल एक राजनीतिक खेल की तरह लगता है। असल में, हर देश को आर्थिक और सामाजिक संकट के समय मदद की जरूरत होती है, और भारत ने हमेशा दक्षिण एशिया में सहायक भूमिका निभाई है। बांग्लादेश को इस बात को समझना होगा कि अंतर्राष्ट्रीय रिश्तों में सहयोग और समर्थन की प्रक्रिया स्वाभाविक है और इसे सकारात्मक दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए।

बांग्लादेश के विपक्षी नेताओं और कुछ कट्टरपंथी तत्वों के बयानों से यह भी पता चलता है कि वहां की राजनीतिक स्थिति अस्थिर हो सकती है, जिससे जनता में असंतोष बढ़ सकता है। इस स्थिति में अगर बांग्लादेश कृषि सुधारों पर ध्यान केंद्रित करता है, तो वह अपनी खाद्यान्न सुरक्षा और आत्मनिर्भरता में सुधार कर सकता है।

भारत के पास इसके लिए संसाधन और तकनीकी मदद है, जो बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था को पुनः मजबूत करने में सहायक हो सकते हैं। सभी मुश्किलों के बावजूद, बांग्लादेश को यह समझना चाहिए कि भारत का दायित्व कभी भी खुद को थोपने का नहीं रहा है, बल्कि हमेशा अन्य देशों की मदद करना रहा है। जब पाकिस्तान और अन्य देशों ने बांग्लादेश की मदद नहीं की, तब भारत ने उसे सहारा दिया था।

अगर बांग्लादेश अपनी स्थिति सुधारने में मदद चाहता है, तो उसे अपनी गलत नीतियों को बदलते हुए, विकास और आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम उठाने होंगे। अब समय आ गया है कि बांग्लादेश अपनी राजनीतिक स्थिति को स्थिर बनाए और भारत के साथ अच्छे संबंध बनाए रखे।

चीन की बढ़ती हुई ताकत और ऋण-डिप्लोमैसी के बीच बांग्लादेश को समझना चाहिए कि वह अपने विकास के लिए भारत से सहयोग करे, न कि उसे आंखें दिखाए। यदि बांग्लादेश अपने इतिहास को याद रखते हुए अपनी नीति में बदलाव लाता है, तो यह उसकी और भारत की साझेदारी के लिए बेहतर होगा, और इससे पूरे क्षेत्र की समृद्धि का रास्ता साफ होगा।