नेपाल के पुष्प कमल दहल प्रचंड नए प्रधानमंत्री बने, पीएम मोदी ने दी बधाई

दिल्ली

Central DESK : नेपाल में माओवाद केंद्र के पुष्प कमल दहल प्रचंड नए प्रधानमंत्री बने हैं. रविवार को हुए एक बड़े सियासी उलटफेर में नेपाली कांग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ा. डेढ़ साल बाद नेपाल में केपी ओली की पार्टी ने फिर से वापसी की है. ओली प्रचंड की गठबंधन सरकार में किंगमेकर की भूमिका निभाएंगे. नेपाल में माओवाद की सरकार बनने पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रचंड को बधाई दी है. प्रचंड को बधाई संदेश चीन की ओर से भी भेजा गया है. प्रचंड को चीन का समर्थक माना जाता है और चीन के पूर्व प्रमुख माओत्से को वे अपना आइडल मानते हैं.

जानिए प्रचंड के राजनीतिक सफर बारे में :
प्रंचड की राजनीति में एंट्री 1980 के दशक में हुई. राजनीति में आने से पहले प्रचंड एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे. नेपाल मूवमेंट में कम्युनिष्ट पार्टी ने प्रचंड को पहले चितवन और फिर तराई की कमान सौंपी. प्रचंड चीनी नेता माओत्से के विचारों से प्रेरित थे और आंदोलन में भी इसकी छाप दिखी. नेपाल की शाही सरकार से वारंट निकलने के बाद करीब 12 सालों तक प्रचंड अंडर ग्राउंड रहे. 1990 में माओवाद और सरकार के बीच समझौता के बाद प्रचंड बाहर आए.

1992 में प्रचंड को पहली बार कम्युनिष्ट पार्टी (माओवाद) की कमान मिली. इसके बाद नेपाल में राजशाही के खिलाफ सिविल वार में तेजी आई. 2002 में शेर बहादुर देउबा ने प्रचंड के खिलाफ वारंट निकाला था. नेपाल में लोकतंत्र आने के बाद प्रचंड अब तक 2 बार प्रधानमंत्री रहे हैं. पहली बार 2008 में गिरिजा प्रसाद कोइराला को हटाकर वे पीएम बने, लेकिन नेपाल के सैन्य प्रमुख को लेकर हुए टकराव के बाद उन्हें 9 महीने में ही कुर्सी छोड़नी पड़ी. दूसरी बार 2016 में प्रचंड प्रधानमंत्री बने और समझौते के तहत एक साल बाद कुर्सी छोड़ दी. प्रचंड ने कुर्सी छोड़ते वक्त कहा था कि नेपाल की राजनीति में विश्वसनीयता की कमी है. हम कोशिश कर रहे हैं कि ये फिर से बहाल हो.

शुरुआती दौर में प्रचंड के साथ बाबूराम भट्टराई, माधव कुमार नेपाल, मोहन वैद्य जैसे दिग्गज नेता साथ होते थे, लेकिन 2009 के बाद हालात बदल गए. धीरे-धीरे माओवाद केंद्र में टूट होती गई और अब प्रचंड अकेले पड़ गए. कभी नेपाल में सबसे बड़ी पार्टी रही माओवाद केंद्र हाल ही में हुए चुनाव में तीसरे नंबर की पार्टी बन गई. हालांकि, किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की वजह से प्रचंड का पलड़ा भारी हो गया.