रचनाधर्मिता के जादूगर कमलेश्वर के साथ बीतें लम्हें

दिल्ली

बात 1993 – 94 की ही होगी या कब की , ठीक – ठीक याद नहीं । तारीख और साल मुझे नहीं याद नहीं रहते लेकिन विवरण यथावत , ‘ अनडेस्टारटेड ‘ ..। 40 साल पहले तक का किसी का भाषण या वक्तव्य अविकल , हूबहू।

किसी बहुत बड़े अंग्रेजी अखबार ग्रुप से ही एक हिंदी अखबार ‘ नागरिक ‘ निकाले जाने की योजना थी और उसकी चर्चा बहुत गरम । कमलेश्वर जी को ही उसका संपादक होना था । उन्हीं दिनों का कमलेश्वर जी का मुझे लिखा एक पत्र अपनी मोड़ में अब जगह – जगह टूट चुका , अक्षरों की मिट चुकी चमक में , आज भी मेरे पास है — ‘ आप लोग पत्रकारिता की खत्म हो रही देसी नस्ल हैं …’ । जाहिर है यह आज के विरल गद्यकार , श्रेष्ठ कथाकार अनिल कुमार यादव के बारे में भी था ।

लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित राज्य अतिथि गृह की वह रात मुझे कैसे भूल सकती है । लखनऊ में एक सेमिनार था जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर , प्रख्यात वकील राम जेठमलानी , पत्रकार उदयन शर्मा और कमलेश्वर जी आये थे । तय हुआ कि अखबार के दफ्तर से छूट कर हमलोग कमलेश्वर जी से मिलने राज्य अतिथि गृह चलेंगे ।

खासकर मध्यवर्गीय जीवन के प्रतीक ( पार्क , नियान ट्यूब और मूंगफली ) सोचते हम लोगों ने करीब 400 ग्राम मूंगफली मय चटनी और एक बोतल ओल्डमांक ( Old Monk Rum ) ले ली । कमलेश्वर जी से एक खास भावभूमि पर बात करने का यह पर्याप्त साजो – सामान था । पता चला रात 10 बजे तक कमलेश्वर जी एक बड़े होटल में डिनर पर थे । 11 बजा , 12 बजा । हम लोगों ने एक तिहाई उनके इंतजार में खत्म भी कर दी । गेस्ट हाउस के लॉन में बैठे – बैठे , सिर के ऊपर की दूधिया रोशनी गिलास में छानते । तकरीबन 2 बजे लौटे थे कमलेश्वर जी । हमने दरवाजे पर दस्तक दी , उन्होंने छलक और टपक पड़ती , लाल रेशे खींची आखों से हमें घूर कर पूछा – आप लोग कौन ?

अपने परिचय में हमने पत्रकार होना छोड़ सब बता दिया । ‘ दैनिक जागरण ‘ का बताना इसलिये मुनासिब नहीं लगा था कि कमलेश्वर जी ने कुछ ही साल पहले मालिक संपादक को बहुत कुछ कहते , दिल्ली दैनिक जागरण के संपादक पद को लात मार दी थी ।

अब हम लोग कमलेश्वर जी के साथ थे । उनके लिए पैग बनाया । बातचीत चलती रही । अब बातचीत का क्लाइमेक्स आ रहा था ।

  • हम ‘ राजा निरबंसिया ‘ के लेखक की तलाश में हैं
  • मुश्किल है उसका मिलना
  • क्यों ?
  • तब मैं लिख रहा था , अब लेखक हो गया हूं

इसी बातचीत में कमलेश्वर जी अचानक फूट – फूट कर रोने लगे । खास बात कि तीनों ही …आपस में मूडी सटाकर , हालांकि नहीं ही जान पाए , क्या जीया , क्यों जीया ।

कमलेश्वर का नाम नई कहानी आंदोलन से जुड़े अगुआ कथाकारों में है। उनकी पहली कहानी 1948 में प्रकाशित हो चुकी थी परंतु ‘ राजा निरबंसिया ‘ ( 1957 ) से वे रातों-रात बड़े कथाकार बन गए । उन्होंने ने तीन सौ से ऊपर कहानियां लिखीं । जिनमें ‘ मांस का दरिया,’ ‘ नीली झील ‘, ‘तलाश ‘, ‘ बयान ‘, ‘ नागमणि ‘, ‘अपना एकांत’, ‘आसक्ति’, ‘ज़िंदा मुर्दे’, ‘जॉर्ज पंचम की नाक’, ‘मुर्दों की दुनिया’, ‘ कस्बे का आदमी’ एवं ‘ स्मारक’ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।

उन्होंने दर्जन भर उपन्यास भी लिखे । इनमें ‘ एक सड़क सत्तावन गलियाँ’, ‘डाक बंगला’, ‘तीसरा आदमी’, ‘समुद्र में खोया आदमी’ और ‘काली आँधी’ प्रमुख हैं। ‘काली आँधी’ पर गुलज़ार द्वारा निर्मित’ आँधी’ नाम से बनी फ़िल्म ने अनेक पुरस्कार जीते। उनके अन्य उपन्यास हैं -‘लौटे हुए मुसाफ़िर’, ‘वही बात’, ‘आगामी अतीत’, ‘सुबह-दोपहर शाम’, ‘रेगिस्तान’, ‘एक और चंद्रकांता’ तथा ‘कितने पाकिस्तान’ हैं। ‘

दरअसल कमलेश्वर की पूरी रचना धर्मिता में उनके अपने अंदर की बेचैनी हमेशा नुमाया होती रही । जिससे उन्हें पोषण मिलता था और उन्होंने बेचैनियां हमेशा जिलाये रखी ।

उनका बचपन अभावों और विपरीतताओं में गुजरा । उन्होंने 1954 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से एम.ए किया । 1970 में वह मुम्बई चले गए । जहाँ उन्होंने कहानी एवं संवाद लेखन किया । उन्होंने लगभग 75 फिल्मों के लिए काम किया, जिनमें प्रमुख थी गुलजार की ‘आंधी’ जो उनके उपन्यास ‘काली आंधी’ पर आधारित थी। मौसम, रंजनीगंधा, छोटी सी बात, रंग बिरंगी, रवि चोपड़ा की ‘द बर्निंग ट्रेन’ वगैरह उनकी कहानी पर बनी खास फिल्में हैं। फिल्म अमानुष का संवाद भी लिखा हैं।

वह आम जिंदगी के रचनाकार थे । मध्यमवर्गीय परिंदा सपने , हताशा, निराशा, दरकते-बनते रिश्ते, रूढ़ियां , बदलती परंपराएं और समस्याओं के साथ समाज में घटित विभिन्न आयाम उनकी रचनाओं में देखने को मिलते हैं।

लेकिन उस रात हम तीनों ( कमलेश्वर जी , अनिल कुमार यादव और मैं ) क्यों रो पड़े थे , आज तक नहीं जान पाया ।

राघवेंद्र दुबे की फ़ेसबुक वाल से साभार