डेस्क। गाजे-बाजे के साथ गणपति बप्पा हमारे द्वार पर दस्तक देने आ रहे हैं। अधिकतर घरों में गणेशजी की प्रतिमा स्थापित कर 10 दिन तक उत्सव की पूरी तैयारी है, लेकिन गणेश प्रतिमा को लेकर कुछ बिंदु ऎसे हैं, जिन्हें लेकर असमंजस की स्थिति रहती है। जैसे भगवान की सूंड किस तरफ होना चाहिए, प्रतिमा खड़ी हुई होना चाहिए या बैठे हुए विग्रह की स्थापना की जाना चाहिए।
मूषक या रिद्धि-सिद्धि साथ हो या ना हो। गणेश जी के ऊपर जितनी भी प्राचीन पुस्तक लिखे गए है उसके अनुसार दोनों ही तरफ की सूंड वाले गणेशजी की स्थापना शुभ होती है। दाई और की सूंड वाले सिद्धि विनायक कहलाते हैं तो बाई सूंड वाले वक्रतुंड हालांकि शास्त्रों में दोनों का पूजा विधान अलग-अलग बताया गया है।
ऐसे करें स्थापना
स्थापना स्थल को गंगाजल से पवित्र करें और गोबर से लीपकर चौकी लगाएं, उस पर नवीन वस्त्र बिछाएं, वस्त्र पर स्वस्ति लेखन कर अक्षत पूंज रखें, गणेशजी की प्रतिमा रखें। ओम गं गणपतये नम: मंत्र का उच्चारण करते हुए गणेशजी का आव्हान कर प्रतिमा स्थापित करें। अर्घ्य, आचमन एवं स्नान कराकर भगवान गणेश को वस्त्र, उपवस्त्र और जनेऊ चढ़ाएं। पुन: आचमन कर चंदन अथवा सिंदूर का तिलक प्रतिमा को लगाएं।
अक्षत चढ़ाकर कनेर के पुष्प, पुष्पमाला, अर्पित करें, दूर्वा चढ़ाकर अबीर, गुलाल, सिंदूर अर्पित करें। धूप, दीप का दर्शन कराकर भगवान को लड्डू अथवा मोदक का भोग लगाएं। ऋतुफल अर्पित करें, आरती करें, इसके बाद पुष्पांजलि कर प्रदक्षिणा करें और गणेश स्त्रोत का पाठ करें।
दाई सूंड वाले गणेशजी
सिद्धि विनायक का पूजन करते समय भक्त को रेशमी वस्त्र धारण कर नियम से सुबह-शाम पूजा करनी पड़ती है। सूती वस्त्र पहन कर पूजन नहीं कर सकते। पुजारी या पुरोहित से पूजा कराना शास्त्र सम्मत माना जाता है। भक्त को जनेऊ धारण कर उपवास रखना होता है। स्थापना करने वाले को इस दौरान किसी के यहां भोजन करने नहीं जाना चाहिए।
बाई सूंड वाले गणेशजी
यदि सूंड प्रतिमा के बाएं हाथ की ओर घूमी हुर्ई हो तो ऎसे विग्रह को वक्रतुंड कहा जाता है। इनकी पूजा-आराधना में बहुत ज्यादा नियम नहीं रहते हैं। सामान्य तरीके से हार-फूल, आरती, प्रसाद चढ़ाकर भगवान की आराधना की जा सकती है। पंडित या पुरोहित का मार्गदर्शन न भी हो तो कोई अड़चन नहीं रहती।
गणेशजी की बैठी या खड़ी मुद्रा
शास्त्रों के अनुसार गणेश जी की मूर्ति बैठी हुई मुद्रा में ही स्थापित करना चाहिए। मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा बैठकर ही होती है। खड़ी मूर्ति की पूजा भी खड़े होकर करनी पड़ती है, जो शास्त्र सम्मत नहीं है। गणेश जी की पूजा भी बैठकर ही करनी चाहिए, जिससे व्यक्ति की बुद्धि स्थिर बनी रहती है।
मूषक और रिद्धि-सिद्धि
मूषक का स्वभाव है वस्तु को काट देने का, वह यह नहीं देखता है कि वस्तु पुरानी है या नई। कुतर्की जन भी यह नहीं सोचते कि प्रसंग कितना सुंदर और हितकर है। वे स्वभाववश चूहे की भांति उसे काट डालने की चेष्टा करते ही हैं। प्रबल बुद्धि का साम्राज्य आते ही कुतर्क दब जाता है। गणपति बुद्धिप्रद हैं अत: उन्होंने कुतर्क रूपी मूषक को वाहन के रूप में अपने नीचे दबा रखा है। गणेश प्रतिमा में मूषक भगवान के नीचे होना श्रेयस्कर है। मूर्ति के साथ रिद्धि-सिद्धि का होना शुभ माना जाता है।
बैठी मुद्रा में लें प्रतिमा
बाएं सूंड की प्रतिमा लेना ही शास्त्र सम्मत माना गया है। दाएं सूंड की प्रतिमा में नियम-कायदों का पालन करना होता है। प्रतिमा हमेशी बैठी हुई मुद्रा में ही लेनी चाहिए, क्योंकि खड़े हुए गणेश को चलायमान माना जाता है।
मिट्टी की प्रतिमा सर्वश्रेष्ठ
श्रीजी की प्रतिमा मिट्टी की ही होनी चाहिए क्योंकि शास्त्रों के अनुसार, समय-समय पर सभी कार्यो मे मिट्टी का ही पूजन किया जाता है।
।। श्री गणेश पूजन ।।
गणेश-पूजन एक साकार, परिमित, परिच्छिन्न शक्ति का प्रतीक न होकर निर्गुण परब्रह्म उपासना का प्रतीक है। वे अपने उपासक भक्तों के लिए कल्पवृक्ष हैं, अभयानन्दसन्दोह हैं। मानव- जीवन में उनकी उपासना सर्वोपरि है।
भगवान श्रीगणेश उमा-महेश्वर के पुत्र हैं। वे अग्रपूज्य हैं, गणों के ईश हैं, स्वास्तिक-रूप हैं तथा प्रणवरूप हैं। उनके अनन्त नामों में- सुमुख, एकदन्त, कपिल, गजकर्णक, लम्बोदर,विकट, विघ्ननाशन, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र तथा गजानन ये बारह नाम अत्यंत प्रसिद्ध हैं।
इन नामों का पाठ अथवा श्रवण करने से विद्यारम्भ, विवाह, गृह-नगरों में प्रवेश, गृह-नगर से निर्गम तथा किसी भी संकट के समय कोई विघ्न नहीं होता।
मोदक प्रिय गणेश विद्या-बुद्धि और समस्त सिद्धियों के दाता कहे जाते हैं। वे अपने भक्तों को विद्या और अविद्या- इन दोनों से दूर करके निजस्वरूप का बोध करा देते हैं।
भगवान श्रीगणेश को प्रसन्न करने का साधन बड़ा ही सरल और सुगम है, उसे प्रत्येक अमीर-गरीब व्यक्ति कर सकता है। उसमें न विशेष खर्च की, न दान पुण्य की, न विशेष योग्यता की और न विशेष समय की ही आवश्यकता है, आवश्यकता है केवल शुद्धभाव की।
पीली मिट्टी की डली ले लो, उस पर लाल कलावा लपेट दो- बस भगवान श्रीगणेश साकार-रूप में उपस्थित हो गए। रोली का छींटा लगा दो और चार बतासे चढ़ा दो, यह भोग लग गया और-
गजाननं भूतगणादिसेवितं
कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं
नमामि विध्नेश्वरपादपङ्कजम्।।
यह छोटा सा श्लोक बोल दो मंत्र हो गया। बस, इतने मात्र से ही भगवान श्रीगणेश आप पर प्रसन्न हो जाएंगे। क्योंकि दयालुता की मूर्ति हैं वे। कुछ भी न बने तो दूब ही चढ़ा दो और अपने सारे कर्म सिद्ध कर लो। व्यय कुछ भी नहीं और लाभ सबसे अधिक। यही तो उनकी विलक्षण महिमा है।