पुलिन त्रिपाठी। ज्ञानवापी एक ऐसा मुद्दा है जो देश में इस वक्त सबसे ज्यादा चर्चा में है। हमने कुछ विद्वानों से बात की उन्होंने जो कहा वह यहां हू-ब-हू पेश है। बस इन्हें कुछ कणियों में बांट दिया गया है। पेश है पहली कड़ी-
इतिहासविद् रक्षाराम तिवारी बताते हैं कि पुराणों के अनुसार, ज्ञानवापी की उत्पत्ति तब हुई थी जब धरती पर गंगा नहीं थीं और इंसान पानी की बूंद-बूंद के लिए तरसता था। तब भगवान शिव ने स्वयं अपने अभिषेक के लिए त्रिशूल चलाकर जल निकाला। यही पर भगवान शिव ने माता पार्वती को ज्ञान दिया। इसीलिए, इसका नाम ज्ञानवापी पड़ा और जहां से जल निकला उसे ज्ञानवापी कुंड कहा गया। ज्ञानवापी का उल्लेख हिंदू धर्म के पुराणों मे मिलता है। दरअसल वापी का अर्थ होता है तालाब। ज्ञानवापी का सम्पूर्ण अर्थ है ज्ञान का तालाब। काशी की छः वापियों का उल्लेख पुराणों मे भी मिलता है।
पहली वापी: ज्येष्ठा वापी, जिसके बारे मे कहा जाता है की ये काशीपुरा मे थी, अब लुप्त हो गई है।
दूसरी वापी: ज्ञानवापी, जो काशी विश्वनाथ मंदिर के उत्तर मे है।
तीसरी वापी: कर्कोटक वापी, जो नागकुंआ के नाम से प्रसिद्ध है।
चौथी वापी: भद्रवापी, जो भद्रकूप मोहल्ले मे है।
पांचवीं वापी: शंखचूड़ा वापी, लुप्त हो गई।
छठी वापी: सिद्ध वापी, जो बाबू बाज़ार में थी और अब लुप्त हो गई।
उन्होंने बताया कि अठारह (18) पुराणों मे से एक लिंग पुराण में कहा गया है:
“देवस्य दक्षिणी भागे वापी तिष्ठति शोभना।
तस्यात वोदकं पीत्वा पुनर्जन्म ना विद्यते।”
इसका अर्थ है: प्राचीन विश्ववेश्वर मंदिर के दक्षिण भाग में जो वापी है, उसका पानी पीने से जन्म मरण से मुक्ति मिलती है।
स्कंद पुराण मे कहा गया है:
उपास्य संध्यां ज्ञानोदे यत्पापं काल लोपजं |
क्षणेन तद्पाकृत्य ज्ञानवान जायते नरः |
अर्थात- इसके जल से संध्यावंदन करने का भी बड़ा फल है, इससे भी ज्ञान उत्पन्न होता है, पाप से मुक्ति मिलती है।
स्कंद पुराण:
योष्टमूर्तिर्महादेवः पुराणे परिपठ्यते ।
तस्यैषांबुमयी मूर्तिर्ज्ञानदा ज्ञानवापिका।
अर्थात ज्ञानवापी का जल भगवान शिव का ही स्वरूप है।
इतिहासविद् तिवारी के मुताबिक पुराण न जाने कितनी सदियों पहले लिखे गए, उसमें भी ज्ञानवापी को भगवान शिव का स्वरूप बताया गया है। सारे पुराण, कह रहे है की ज्ञानवापी हिंदुओं से जुड़ा हुआ है। लेकिन आज 2022 मे आप सुनते है की मस्जिद का नाम है ज्ञानवापी मस्जिद। मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण से पहले काशी को अविमुक्त और भगवान शिव को अविमुक्तेश्वर कहा जाता था।
इतिहासकार के मुताबिक काशी मे अविमुक्तेश्वर के स्वयं प्रकट हुए शिवलिंग की पूजा होती थी जिसे आदिलिंग कहा जाता था लेकिन मुगल आक्रांताओं के आक्रमणों ने काशी के मंदिरों को कई बार नष्ट किया। इतिहासकार कहते हैं कि मुहम्मद गोरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक को बनारस विजय के लिए भेजा। कुतुबुद्दीन ऐबक के हमले में बनारस के एक हजार से भी अधिक मंदिर तोड़े गए और मंदिर की संपत्ति कहा जाता है 1400 ऊंटों पर लादकर मोहम्मद गोरी को भेज दी गई। बाद में कुतुबुद्दीन को सुल्तान बनाकर, गोरी अपने देश वापिस लौट गया।
फिलहाल जो लिंग ज्ञानवारी में मिला है उसे भी कुतुबुद्दीन अपने साथ ले जाना चाहता था लेकिन शिव के वरदान के कारण वह ऐसा न कर सका। और हार कर उसने शिवलिंग को तालाब में फेंकवा दिया।
कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनारस मे शासन के लिए 1197 मे एक अधिकारी नियुक्त किया था। बनारस मे कुतुबुद्दीन ऐबक के शासन ने बड़ी कड़ाई के साथ मूर्तिपूजा हटाने की पूरी कोशिश की। इसका नतीजा ये हुआ की क्षतिग्रस्त मंदिर वर्षों तक ऐसी ही पड़े रहे क्योंकि इन्होंने ऐसा तोड़ा और ऐसा इनका राज चलता था की किसी की हिम्मत ही नहीं हुई की इन मंदिरों को फिर से बनाए। लेकिन 1296 आते -आते, बनारस के मंदिर फिर से बन गए और फिर से काशी की शोभा बढ़ाने लगे।
बाद मे अलाउद्दीन खिलजी के समय, बनारस के मंदिर फिर से तोड़े गए।फिर 14वी सदी मे तुगलक शासकों के दौर मे जौनपुर और बनारस मे कई मस्जिदो का निर्माण हुआ। कहा जाता है, ये सभी मस्जिदें, मंदिरो के अवशेषों पर बनाई गई थी। 14वी सदी मे जौनपुर मे शर्की सुल्तानों ने पहली बार, काशी विश्वनाथ मंदिर को तुड़वाया। 15वी सदी मे सिकंदर लोदी के समय भी बनारस के सभी मंदिरों को फिर से तोड़ा गया।वर्षों तक मंदिर खंडहर ही बने रहे।
16वीं सदी मे अकबर के शासन मे उनके वित्त मंत्री टोडरमल ने अपने गुरु नारायण भट्ट के आग्रह पर 1585 मे विश्वेश्वर का मंदिर बनवाया जिसके बारे मे कहा जाता है की यही काशी विश्वनाथ का मंदिर है। टोडरमल ने विधिपूर्वक, विश्वनाथ मंदिर की स्थापना ज्ञानवापी क्षेत्र में की।