-पालकी पर सवार होकर विदा कराए जाते थे भगवान गणेश
कानपुर। शहर में गणेश महोत्सव का इतिहास बरसों- बरस पुराना है। नगर में इस परम्परा की शुरूआत का श्रेय महाराष्ट्र मंडल को ही जाता है। सन् 1919 में नगर में रहने वाले चंद मराठी परिवारों ने गणेश स्थापना से इसकी शुरूआत की थी। साल 1919 से लगातार चली आ रही इस परम्परा का अधिक प्रचार प्रसार तो नही है लेकिन उनका पूजन मराठी रीति-रिवाजों से होना वाला शायद नगर का यह एकमात्र गणेश महोत्सव समिति का कहा जाएगा।
हालांकि वक्त के साथ-साथ गणेश उत्सव के रंग और अंदाज बदलते चले गए। कभी पालकी से विदा होने वाले गणपति बप्पा की प्रतिमाएं अब हाईटेक रथ पर विराजमान होकर विसर्जन को जाती हैं। पहले जहां चंद महाराष्ट्रियन परिवार घरों में ही गणेश महोत्सव मनाते थे वहीं अब गली-गली में गणपति बप्पा की प्रतिमाएं विराजमान हैं। कानपुर में गणेश महोत्सव का इतना प्रसार हो चुका है कि यदि इसे ‘मिनी मुबंई’ कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
चलिए जानते हैं कि शहर में गणेश महोत्सव के इतिहास और बदलाव के बारे में…। महाराष्ट्र मंडल के पूर्व अध्यक्ष हरिभाऊ खांडेकर ने बताया कि मराठी समुदाय में गणपति स्थापना का इतिहास काफी पुराना है। सन् 1892 में पुणे से पं बाल गंगाधर तिलक ने सार्वजनिक गणेश महोत्सव की घोषणा की थी। कानपुर में उस समय कुछ ही मराठी परिवार रहते थे।
बिठूर के गणेश मंदिर में गणेश उत्सव मनाया जाता था, लेकिन उसका विस्तार नहीं था। 1919 में करीब 20-25 मराठी परिवार के लोगों ने गणेश उत्सव समिति की स्थापना की और घरों में ही गणेश स्थापना की। कुछ साल बाद टेक्सटाइल इंस्टीट्यूट के कुछ मराठी शिक्षक और छात्र भी इस समिति से जुड़े और उत्सव को वृहद स्तर पर मनाने में जुट गए।
युवाओं की प्रतिभाओं को मंच देने के लिए 11 दिनों तक इस महोत्सव में कई सांस्कृतिक, रंगारंग, व्याख्यान आदि कार्यक्रम आयोजित किए जाने लगे। सन् 1924 में गणेश उत्सव समिति का नाम बदल कर महाराष्ट्र मंडल कर दिया गया। सन् 1939 में महाराष्ट्र मंडल खलासी लाइन में स्थापित किया गया। डॉ. खांडेकर ने बताया कि चूंकि महाराष्ट्र में साक्षरता का प्रतिशत ज्यादा था।
इस वजह से कई बड़े मराठी अधिकारी, अफसर शिक्षा, चिकित्सा, प्रशासनिक, उद्यमी आगे आए। चकेरी एयरफोर्स, आईआईटी, बिठूर, अनवरगंज, खलासी लाइन, कोपरगंज क्षेत्रों में मराठी परिवारों की संख्या बढ़ी। मंडल से कई लोग जुड़े। धीरे-धीरे गणेशोत्सव का विस्तार होने लगा। महाराष्ट्र मंडल के गणेश महोत्सव में पहले पुणे से गणपति की दो मूर्तियां आती थी।
तत्कालीन यूपी सेल्स में चीफ एक्जीक्यूटिव गोपाल राव पटवर्धन इन मूर्तियों को मंगवाते थे। इसमें एक शोभामूर्ति होती थी और एक पूजन के लिए। स्थापना के बाद मूर्ति का विसर्जन पालकी से होता था। शोभायात्रा निकाली जाती थी। जहां-जहां से शोभायात्रा निकलती वहां पर लोग आरती उतारते थे। रंग-अबीर उड़ाने का कल्चर नहीं था।