कांपते और धक-धक मन से पहला फोन सुबह आठ बजे अपने मित्र और सीनियर, वरिष्ठ पत्रकार आलोक जोशी को किया। उनकी रुंधी आवाज और एक से दूसरे शब्दों के बीच बहुत उदास ‘ पॉज ‘ ने आशंका पुख्ता कर दी। तो नहीं रहे कमाल खान। बेहद ‘माई डियर’ व्यक्तित्व मनोज श्रीवास्तव (अमर उजाला में विशेष संवाददाता) के बाद कमाल खान की भी इस दुनिया से रुखसती मेरी बहुत निजी क्षति है।
अब इधर कई सालों से लखनऊ जाना तकरीबन छूट गया था। 2017 के बाद तो ज्यादा वक्त गोरखपुर-दिल्ली। गोरखपुर कम, दिल्ली ज्यादा। दो साल पहले एक मित्र पत्रकार के लिये तत्कालीन प्रमुख सचिव सूचना नवनीत सहगल के पास जाना हुआ था। वह अपने आगे तकरीबन बिछी और ‘ हें -हें ‘ करती भीड़ से घिरे थे। उस भीड़ में भी एक शख्स लेकिन था, जिसकी रीढ़ थी। उन्होंने दूर से ही जोरदार आवाज दी– अरे , भाऊ …! यह कमाल खान थे। कमाल खान से भी मेरी नजदीकी के सेतु मनोज भाई ही थे।
शायद 1993 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव था। मैं और कमाल खान जी साथ ही सुल्तानपुर, जौनपुर, इलाहाबाद, गाजीपुर, वाराणसी के कवरेज यानी पड़ताल दौरे पर थे। दो दिन की बेतरह अस्तव्यस्तता ( खान – पान तक की फुर्सत नहीं मिली थी) में हम दोनों वाराणसी पहुंचे। मैं उन्हें साथ लेकर अपने साढूभाई के यहां रामकटोरा (लहुरावीर, वाराणसी) गया। मेरी साली डॉ. नीलम चौबे ने बस आधे घन्टे में हमें पूड़ी, सब्जी (अचार, दही के साथ) खिलाया। बहुत दिनों तक कमाल भाई इस खाने की तारीफ करते रहे। मैंने उनसे कहा कि मैं विश्वनाथ मंदिर जाना चाहता हूं।
वह मंदिर मेरे साथ ही गये। दरअसल कमाल की पूरी पत्रकारिता कौमी सौहार्द, आपसी मोहब्बत, साझा विरासत के उच्च जीवन मूल्यों से ड्राइव्ड थी। किसी घटना को रिपोर्ट करते बीच में मौजू शेर या किसी गजल की लाइनें, उनके दिल का बहुत सपनीला परिंदा ही तो था। पत्रकारिता में कमाल थे, कमाल खान।
-राघवेंद्र दुबे की फेसबुक वाल से
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